विकास के परिवर्तनशील
चरणों में शिक्षा क्षेत्र में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. शिक्षा व्यवस्था
परिवर्तनों के दौर में गुरुकुल पद्वति से निकल कर ई-लर्निंग तक आ गई है. इसके बाद
भी समाज से शिक्षकों के महत्त्व को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. शिक्षा व्यवस्था
के नए स्वरूप में शिक्षकों की जिम्मेदारियाँ समय के साथ कम नहीं हुई हैं वरन बढ़ी
ही हैं. एक समय जबकि तकनीकी विकास आज की तरह नहीं था तब शिक्षकों के पास अपने
विद्यार्थियों की समस्त प्रकार की समस्याओं के समाधान करने की महती जिम्मेदारी हुआ
करती थी. आज जबकि तकनीकी विकास हाथों-हाथों में मोबाइल, लैपटॉप के माध्यम से सुसज्जित है तब भी शिक्षकों की
जिम्मेदारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. किसी भी शिक्षक का काम विद्यार्थियों को उसकी
पुस्तक को समाप्त करवा देना मात्र नहीं है, उसका दायित्व सिर्फ पाठ्यक्रम को पूरा
करवा देना मात्र नहीं है. ऐसा होना भी नहीं चाहिए. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च
स्तरीय शिक्षा के समस्त सोपानों में शिक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि वह भावी पीढ़ी
को राष्ट्र-निर्माण की दिशा में कार्य करने की मानसिकता से निर्मित करे. अध्यापन
कार्य के पीछे की मूल भावना के अनुसार एक शिक्षक को किसी उत्पाद का निर्माण नहीं
करना है वरन वह एक नागरिक तैयार करना है, एक व्यक्तित्व का विकास करना है. ऐसे में उसके कार्यों, उसकी भावना, उसकी मानसिकता का प्रभाव उसके विद्यार्थियों पर पड़ता है.
आज जबकि तकनीकी
विकास के दौर में ई-लर्निंग, ई-मैटर
आदि के द्वारा शिक्षा देने की बात होने लगी है. वीडियो कांफ्रेंसिंग के साथ-साथ
ऑनलाइन शिक्षा की अवधारणा ने यह साबित करने का प्रयास किया है कि शिक्षक का कार्य
विशुद्ध रूप से अपने पाठ्यक्रम को पूरा करवा देना, विद्यार्थियों की परीक्षा लेना, उनकी उत्तर-पुस्तिका जाँचकर अंक देना भर रह
गया है. वैश्वीकरण के आधुनिक दौर में कम्प्यूटर, मोबाइल, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन, ई-मेल, मैसेज, सोशल-मीडिया आदि को ही शिक्षक मान लिया गया है. ये मशीनी अंग शिक्षक के सहायक
उपकरण तो हो सकते हैं किन्तु किसी शिक्षक का स्थान नहीं ले सकते हैं. अभिभावकों के
पास आज समय की अत्यंत कमी देखने को मिल रही है. ऐसे में मोबाइल, इंटरनेट क्रांति के
चलते एक क्लिक पर तमाम जानकारियों को सामने देखकर अभिभावक संतुष्टि का एहसास करने
लगे हैं. वे यह समझना नहीं चाहते कि ऑनलाइन माध्यम से जानकारी तो मिल सकती है
किन्तु किसी योग्य व्यक्ति का सान्निध्य नहीं मिल सकता है, जो बच्चों को सही-गलत समझा सके.
मशीनीकृत शिक्षा
व्यवस्था, ऑनलाइन क्लासेज के माध्यम
से किसी विषय को भले ही सहजता से समझाया जा सकता हो किन्तु किसी व्यक्ति में उसके
व्यावहारिक लक्षणों को विकसित नहीं किया जा सकता है. तकनीकी रूप से मशीनी शिक्षा
के प्रति आसक्ति ने विद्यार्थियों में सहनशीलता, सामूहिकता, सांगठनिकता, बड़ों के प्रति
सम्मान, समाज के प्रति
दायित्व-बोध, परोपकार की भावना
आदि को कम करने के साथ-साथ लगभग समाप्त ही किया है. ऐसा होने के कारण आज समाज में
बच्चों को, नवयुवकों को बड़ी
संख्या में अवसाद में जाते देखा जा सकता है. नवयुवकों की बहुत बड़ी संख्या नशे की
गिरफ्त में जा रही है. जरा-जरा सी बात में नाकामी मिलने पर निराशा छा जाना और उसकी
तीव्रता इतनी बढ़ जाना कि उनका आत्महत्या करने को प्रवृत्त होना आदि आज आम होता जा
रहा है. बच्चों को बताने वाला ही कोई नहीं कि क्या सही है क्या गलत है. ये समझने
वाली बात है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? आज लोगों की जीवन-शैली तकनीकी रूप से, भौतिक रूप से पहले से कहीं अधिक संपन्न हुई है. लोगों को अपने मनमाफिक
कार्यक्षमता के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता भी प्राप्त हुई है. ऐसे में समाज
में शिक्षकों के प्रति गंभीरता का भाव समाप्त भले ही न हुआ हो किन्तु कम अवश्य हुआ
है. तकनीक को सर्वस्व मानने वालों के लिए एक शिक्षक का महत्त्व संस्थान स्तर पर
कार्य करने वाले व्यक्ति जितना रह गया है. तकनीक को हाथ में लिए घूमने वाली पीढ़ी
को लगता है कि वह अपने साथ ज्ञान का सीमित भंडार लेकर चल रहा है, ऐसे में उसे किसी शिक्षक की आवश्यकता नहीं
है. देखा जाये तो किसी भी तरह का तकनीकी विकास किसी भी शिक्षक की महत्ता को कम
नहीं कर सकता है. किसी भी शिक्षक की स्थान-पूर्ति नहीं कर सकता है.
सत्यता यही है कि मशीन
ज्ञान तो दे सकती है किन्तु आत्मविश्वास नहीं जगा सकती. ऑनलाइन शिक्षा किसी भी
विषय पर सामग्री की उपलब्धता सहज करवा सकती है किन्तु उसके व्यावहारिक पक्षों से
परिचित नहीं करा सकती. ई-लर्निंग से घर बैठे विषय से सम्बंधित जानकारी मिल सकती है
किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का तरीका नहीं मिल सकता. किसी समय में तकनीक के, सामग्री के, पुस्तकों आदि के अभाव ने शिक्षकों की महत्ता को
स्थापित किया होगा किन्तु आज तकनीकी विकास के दौर में भी शिक्षकों का होना
अनिवार्य है. बचपन से संस्कार, आत्मविश्वास, जिज्ञासा,
सामूहिकता, समन्यव, सहयोग आदि की जिस भावना का विकास एक शिक्षक करता है वह किसी और के द्वारा नहीं
हो सकता है. यही कारण है कि आज भी बच्चों को विद्यालय भेजने की परंपरा का निर्वहन
सभी के द्वारा किया जा रहा है, भले ही वह उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था को अपनी भौतिकता के चलते घर में
स्थापित करवा सकता हो. तकनीक के साथ विकास करते समाज को शिक्षकों के महत्त्व को
समझते हुए नई पीढ़ी को भी इनके महत्त्व को समझाना होगा.
एक शिक्षक के
माध्यम से ही भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक व्यवस्था का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है. नैतिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, हमारे पूर्वजों के बारे में एक शिक्षक द्वारा ही
आत्मिक रूप से ज्ञान दियाजा सकता है. एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों में समाज के
प्रति सेवा-भावना, राष्ट्र के
प्रति जिम्मेवारी का भाव, प्राणीमात्र
के लिए परोपकार की भावना, संगठन-शक्ति
का विकास, सामूहिकता की
स्वीकार्यता आदि गुणों का विकास भी कर सकता है. ऐसे में समझना कतई मुश्किल नहीं है
कि मशीनी संस्कृति, मशीनी
शिक्षा के द्वारा विषय-सामग्री की उपलब्धता तो हो सकती है किन्तु उससे सम्बंधित
विषय पर व्यावहारिक ज्ञान के लिए शिक्षक की आत्मीयता की, उसके सान्निध्य की आवश्यकता है.
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