शक्तियों के वर्चस्व की परिणति है रूस-यूक्रेन विवाद

विगत एक-डेढ़ माह से वैश्विक चर्चा के केन्द्र में रूस-यूक्रेन विवाद बना हुआ है. बहुत से सामरिक और अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के जानकारों को इस विवाद के पार्श्व में तीसरे विश्व युद्ध की आहट भी समझ आ रही है. वैश्विक संबंधों और राजनीति में ये कोई पहला मामला नहीं है जहाँ दो देश लगभग युद्ध की स्थिति में खड़े हों. इससे पहले भी अनेक बार ऐसी घटनाएँ सामने आती रहीं जबकि वैश्विक समुदाय दो भागों में विभक्त दिखाई पड़ा मगर भारत जैसे तमाम देशों की निरपेक्ष नीति के चलते कोई भी विवाद विश्व युद्ध में नहीं बदल सका. इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं कि रूस और यूक्रेन का विवाद मामूली झड़पों अथवा छुटपुट हमलों के बाद समाप्त हो जाये. 



बहरहाल, यह विवाद अंतिम रूप से किस प्रकार की परिणति को प्राप्त करेगा यह तो भविष्य के गर्भ में है और इस पर अभी से इसलिए भी कुछ कहना स्पष्ट रूप से संभव नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि यह विवाद कोई अचानक से जन्मा विवाद नहीं है. यूक्रेन के साथ आज़ादी के नाम पर विवादों का चोली-दामन का साथ रहा है. वर्तमान विवाद आज से लगभग सौ वर्ष पहले ही अस्तित्व में आ चुका था जबकि सन 1917 से पहले रूस और यूक्रेन रूसी साम्राज्य का भाग हुआ करते थे. 1917 की रूसी क्रांति के बाद यूक्रेन ने खुद को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया, ये और बात है कि उसकी यह स्वतंत्रता महज तीन साल तक बनी रह सकी. बाद में  सन 1920 में यूक्रेन सोवियत संघ में शामिल हो गया. 

कालांतर में जब सन 1991 में सोवियत संघ का 15 देशों के रूप में विघटन हुआ तो उसमें एक देश यूक्रेन पुनः अस्तित्व में आया. स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व में आने के बाद यूक्रेन को सदैव इसकी चिंता बनी रही कि यदि कभी रूस ने उस पर हमला कर दिया तो वह रूस का मुकाबला नहीं कर सकेगा. इसलिए वह किसी ऐसे संगठन का साथ चाहता है जो उसकी स्वतंत्रता को बनाये रखे. और यही कारण है कि उसके द्वारा सदैव प्रयास होते रहे कि वह नाटो का सदस्य बन जाये. यहाँ समझने वाली बात यह है कि यूक्रेन जिस सोवियत संघ का कभी हिस्सा हुआ करता था, विघटन के बाद वह उसी के भाग रूस को अपना शत्रु क्यों समझने लगा? देखा जाये तो रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन ने एक बार कहा था कि यूक्रेन को खोना रूस के लिए एक शरीर से अपना सिर काट देने जैसा होगा. रूसी राष्ट्रपति पुतिन भी सोवियत संघ विघटन को, यूक्रेन का अलग देश बनना सबसे बड़ी त्रासदी मानते हैं. इसके साथ-साथ यूक्रेन के भीतर एक बहुत बड़ी जनसँख्या का रूस समर्थित होना भी यूक्रेन को रूस के प्रति सशंकित रखता है. 

ऐसा नहीं है कि अकेले यूक्रेन ही रूस के व्यवहार या उसके प्रति किसी तरह से उठाये जाने वाले कदम को लेकर सशंकित रहता है, या फिर अपनी सुरक्षा, स्वतंत्रता को लेकर संशय में रहता है. कुछ इसी तरह की स्थिति रूस के साथ भी है. वह यूक्रेन की तरफ से किसी हमले को लेकर तो संशय में नहीं रहता है मगर इस बात से हमेशा आशंकित रहता है कि यदि यूक्रेन नाटो संगठन का सदस्य बन गया तो उसकी सुरक्षा अवश्य ही खतरे में पड़ जाएगी. नाटो एक सैन्य समूह है जिसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे तीस देश शामिल हैं. रूस के कुछ पड़ोसी देश पहले ही नाटो में शामिल हो चुके हैं. इनमें एस्टोनिया और लातविया जैसे वे देश भी शामिल हैं जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे. ऐसी स्थिति में यदि यूक्रेन भी नाटो का सदस्य बन गया तो रूस एक तरह से अपने दुश्मन देशों से घिर जाएगा और अमेरिका जैसे देश उस पर हावी हो जाएंगे. 



यदि गंभीरता से रूस-यूक्रेन विवाद को देखा जाये तो यह एक तरह से महाशक्तियों में शामिल माने जाने वाले देशों की नाक की लड़ाई मात्र है. किसी समय में वैश्विक स्तर पर सोवियत संघ और अमेरिका ही महाशक्तियों के रूप में प्रतिष्टित थीं. बाद में सोवियत संघ के विघटन के बाद सम्पूर्ण विश्व ने अघोषित रूप से अमेरिका को एकमात्र महाशक्ति स्वीकार लिया था. उसके साथ-साथ सैन्य संगठन नाटो के रूप में भी अमेरिका का हस्तक्षेप आये दिन वैश्विक जगत में देखने को मिलता ही रहता है. यह सब होने के बाद भी रूस ने अपनी सामरिक शक्ति को कम नहीं होने दिया है. विश्व स्तर पर उसने अपनी हथियार सप्लायर वाली छवि को भी कम नहीं होने दिया है. वह भले ही महाशक्ति के रूप में वैश्विक संगठनों में सहज स्वीकार्य न हो मगर अपनी गतिविधियों, कार्यवाहियों के द्वारा समय-समय पर उसके द्वारा अपने महाशक्ति होने का प्रदर्शन कर ही दिया जाता है. 

इसी मानसिकता के चलते यूक्रेन में उसका हस्तक्षेप बना ही रहता है. यूक्रेन में रूस के हस्तक्षेप का एक अन्य कारण वहाँ बहुसंख्यक रूसी जनसँख्या का होना है. यूक्रेन की राजधानी कीव को रूसी शहरों की माँ कहा जाता है. यूक्रेन में करीब अस्सी लाख रूसी मूल के लोग रहते हैं. रूस ने जब सन 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया पर कब्जा किया तो उसका कहना था उसने ऐसा वहाँ रहने वाले रूसी लोगों की सुरक्षा के लिए किया है. यूक्रेन में रूसी मूल की आबादी की बड़ी संख्या में होने की वजह से ही वहाँ लोग दो धड़े में बंटे हैं. एक भाग रूस का समर्थन करता है जबकि दूसरा भाग यूरोपियन यूनियन और अमेरिका समर्थित नाटो का समर्थन करता है. 

सन 2010 में जब रूस समर्थित विक्टर यानुकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने रूस के साथ करीबी संबंध बनाए और यूक्रेन के यूरोपियन यूनियन से जुड़ने के फैसले को खारिज कर दिया. इस निर्णय का यूक्रेन में कड़ा विरोध हुआ, जिसके चलते सन 2014 में विक्टर यानुकोविच को पद छोड़ना पड़ा. बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में दिसंबर 2021 में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने नाटो की सदस्यता लेने की घोषणा के बाद से ही रूस नाराज है, जो नहीं चाहता है कि यूक्रेन नाटो से जुड़े. यूक्रेन पर दबाव बनाने के लिए रूस ने लाखों की संख्या में रूसी सैनिक यूक्रेन की सीमा पर तैनात कर दिए हैं साथ ही पूर्वी यूक्रेन के दो शहरों लुहान्स्क और डोनेट्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र घोषित कर गणराज्यों के गठन का ऐलान कर दिया. 

यूक्रेन की सीमा रूस से लगी हुई है, इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए यूक्रेन बहुत महत्त्वपूर्ण है. कई विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका इस विवाद के द्वारा अपनी छवि को भी साफ़ करना चाह रहा है. ऐसे में रूस और यूक्रेन के विवाद में अमेरिका की भूमिका को कम नहीं आँका जा सकता है. अमेरिका ने अपने तीन हजार सैनिकों को यूक्रेन की मदद के लिए भेजा है और उनकी तरफ से यह आश्वासन दिया गया है कि वे यूक्रेन की मदद के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. इस मदद के मूल में सच्चाई यह है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन यूक्रेन की सहायता करके सिर्फ अपनी छवि मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले साल अमेरिका को अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी. इसके साथ-साथ ईरान में उसको कुछ हासिल नहीं कर हुआ, तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण करता रहा है. इस तरह की घटनाओं ने अमेरिका की महाशक्ति छवि को नुकसान पहुंचाया है. इस छवि को पुनः चमकाने के लिए और वैश्विक रूप में एकमात्र महाशक्ति बने रहने के उद्देश्य से रूस-यूक्रेन विवाद के द्वारा अमेरिका अपना हस्तक्षेप बनाये हुए है. अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने भी यूक्रेन का समर्थन किया है. इन देशों का समर्थन कब तक चलेगा यह एक बड़ा सवाल है? 

अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों के लिए यूक्रेन सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान बना हुआ है. नब्बे के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो में वे देश सदस्य बन गए जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे. रूस ने इसे खतरे के रूप में देखा. यद्यपि यूक्रेन अभी तक नाटो का हिस्सा तो नहीं है तथापि उसके द्वारा नाटो देशों के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास और अमेरिकी एंटी-टैंक मिसाइल्स जैसे हथियारों के हासिल करने से रूस अपनी सुरक्षा को लेकर सशंकित हुआ है. नाटो देशों की तरफ से अपनी सुरक्षा को लेकर रूस के चिंतित होने का एक कारण यूक्रेन के पास काला सागर के निकट अहम पोत का होना भी है. इस पोत की सीमा चार नाटो देशों से मिलती है. रूस का मानना है कि उस पर हमले के लिए नाटो द्वारा यूक्रेन का उपयोग लॉन्चपैड के रूप में किया जा सकता है.
 
रूस-यूक्रेन विवाद का अंत किस रूप में होगा यह अभी तक स्पष्ट नहीं है. यह विवाद दो देशों की अपनी सुरक्षा चिंताओं को लेकर भले ही उपजा हो मगर इसके द्वारा वैश्विक समुदाय अपनी-अपनी छवि को चमकाने के मूड में दिख रहा है. अंत कुछ भी हो मगर यदि रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध होता है तो इसका असर पूरी दुनिया पर देखने को मिल सकता है. दुनिया के कच्चे तेल के उत्पादन में रूस की हिस्सेदारी तेरह प्रतिशत है. युद्ध की स्थिति में कच्चे तेल का उत्पादन और आपूर्ति अवश्य ही बाधित होगी, जिससे दुनिया भर में कच्चे तेल के दाम बढ़ेंगे. प्राकृतिक गैस आपूर्ति में भी रूस की हिस्सेदारी चालीस प्रतिशत है. यूरोप को होने वाली गैस आपूर्ति हेतु ज्यादातर गैस पाइपलाइन यूक्रेन से गुजरती हैं. युद्ध की स्थिति में इस आपूर्ति पर  नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इसके साथ-साथ अनाज की आपूर्ति के भी प्रभावित होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है. रूस और यूक्रेन दुनिया के दो सबसे बड़े गेंहू उत्पादक हैं. युद्ध की स्थिति में न केवल अनाज की आपूर्ति बल्कि इसका उत्पादन भी प्रभावित होगा. फ़िलहाल तो नाटो सहित अन्य देश अपने-अपने स्तर पर इस विवाद के द्वारा अपनी छवि को बचाने, चमकाने का प्रयास कर रहे हैं.

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