....किन्तु पुनर्मूल्यांकन
आवश्यक है
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह
सेंगर
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मानवीय सभ्यता
के विकास को धर्म ने सदैव प्रभावित किया है। लौकिक जगत में अपनी अलौकिक सत्ता को स्थापित
कर धर्म ने पारलौकिक जगत तक अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है। भारतीय
समाज भी सदैव से धर्म के अनन्तर में अपने क्रियाकलापों को परिपूर्ण करता रहा है। इन
धर्मों के मतानुयायियों द्वारा समाज के मध्य पुनर्जन्मवाद, कर्मवाद,
कर्मकाण्ड, वर्णव्यवस्था, एकेश्वरवाद आदि को विभिन्न रूपों में अनुप्राणित किया गया। विविध धर्मों के
मध्य हिन्दू-धर्म ने अपने दर्शन, आचरण सम्बन्धी नियम,
अवधारणाओं से सामाजिक जीवन, राजनैतिक जीवन को एक
प्रकार की विशिष्टता प्रदान की। इसी विशिष्टता के मध्य ब्राह्मण-धर्म अपनी सर्वोच्चता
को थोपता सा प्रतीत हुआ। विस्तीर्ण कालखण्ड तक भारतभूमि को अपने कर्मकाण्डों,
सिद्धान्तों से अनुप्राणित करता यह धर्म कालान्तर में अपनी समायोजन क्षमता
को लगभग खोता रहा। समायोजन क्षमता के क्षीण होते रहने से शनैः-शनैः ब्राह्मण-धर्म रूढ़ियों,
अंधविश्वासों, कर्मकाण्डों की शरणस्थली बन गया।
धर्म और समाज के व्यापक अन्तःसम्बन्धों के मध्य पुरोहित बिचैलियों की भूमिका का निर्वाह
करने लगे। पण्डितों, पुरोहितों ने अपने तर्कों-कुतर्कों को समाज
के ऊपर लादने की लालसा में किसी अन्य को भी तर्क करने का अधिकार नहीं दिया। ‘ई०पू० छठीं शताब्दी तक आते-आते वर्ण-व्यवस्था सामाजिक असमानता का, कर्मकाण्ड तथा यज्ञ हिंसा और अनावश्यक धार्मिक कृत्यों का और ईश्वरवाद एक बाह्य
शक्ति पर निर्भरता का द्योतक बन चुका था।’1 यह वही
कालखण्ड था जिसमें राजकुमार गौतम ने घर-परिवार त्यागकर तपस्या के आधार पर ज्ञान प्राप्त
किया और बुद्ध कहलाये। इसके बाद उन्होंने अपनी बुद्धवादिता और तर्कशीलता को प्रतिष्ठित
भी किया।
गौतम बुद्ध
का आविर्भाव भारतीय इतिहास की एक विशिष्ट घटना समझी जा सकती है। वे अपने समय के महापुरुष
अथवा तीर्थंकर माने जाते हैं न कि अलौकिक अवतार, जैसा कि उनकी
भक्ति में लीन बौद्धों ने उन्हें समझा और समाज को समझाया। गौतम बुद्ध को कालान्तर में
महिमामंडित करने की दृष्टि से उनके उपदेशों को, संदेशों को प्रमुखता
देने के अतिरिक्त स्वयं गौतम बुद्ध को भी अलौकिक तत्त्व के रूप में प्रतिस्थापित करने
के प्रयास किये जाने लगे। ‘जातक की निदान कथा ‘ललितविस्तर’ तथा अश्वघोष के महाकाव्य ‘बुद्धचरित’ में इस बात का विस्तृत वर्णन है कि गौतम
बुद्ध के जन्म के बाद शुद्धोधन ने ब्राह्मणों को नवजात शिशु का भविष्य बताने को आमंत्रित
किया। इन ब्राह्मणों में से एक कालदेवल शिशु गौतम को देख पहले तो हँसे और बाद में रोने
लगे। कारण पूछे जाने पर उन्होंने बताया- ‘‘मैं हँसा क्योंकि मुझे
सौभाग्य प्राप्त हुआ कि मैंने उस बालक के दर्शन किये, जिसे आगे
चलकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा, वह बुद्ध बनेगा और मैं रोया अपने
दुर्भाग्य पर कि जब वह अपना ज्ञान संसार को बाँटेगा उस समय उसके प्रवचन को सुनने को
मैं जीवित नहीं रहूँगा; राजन! आप हर्षित हैं; आपका पुत्र संसार का महानतम व्यक्ति होगा।”2 इस तरह के अन्य चित्रण भी बौद्ध मतावलम्बियों द्वारा किये गये हैं जिनमें
बुद्ध को अलौकिक रूप में दर्शाने का प्रयास किया गया है। बुद्ध की अलौकिकता को दर्शाते
हुए बताया गया है कि सुजाता नामक कुलीन युवती द्वारा प्रदान उत्तम अन्न की भिक्षा ग्रहण
करके बोधिसत्त्व पीपल के पेड़ (जिसे बोधिवृक्ष कहा गया) के नीचे जा बैठे। यहाँ ‘रात्रि के प्रथम याम में उन्होंने अपने पूर्वजन्मों की स्मृतिरूपी विद्या प्राप्त
की। रात्रि के मध्य याम में उन्होंने दिव्यचक्षु प्राप्त किये और इसके द्वारा समस्त
लोक को अपने कर्मों का फल अनुभव करते देखा। रात्रि के तृतीय याम में उन्होंने प्रतीत्यसमुत्पाद
का ज्ञान प्राप्त किया, जिससे उन्होंने सत्य को आपाततः दो पक्षों
में विभक्त देखा-एक ओर अनित्य, परतन्त्र और सापेक्ष संसार तथा
दूसरी ओर चिर-शान्त निर्वाण।’3
सम्बोधि की
विशिष्ट प्रक्रिया के बाद बुद्ध के मन में संशय हुआ कि ‘‘मुझे
यह गम्भीर, दुरवलोक्य, दुर्बोध,
शान्त, उत्तम, अतर्कगोचर,
सूक्ष्म एवं पण्डित वेद्य धर्म प्राप्त हुआ है। आलयरत जनता के लिए इदम्प्रत्ययतारूप
प्रतीत्यसमुत्पाद अथवा निर्वाण दुर्बोध है। यदि मैं धर्म का उपदेश करूँ और लोग न समझें
तो परिश्रम एवं आयासमात्र होगा।’4 बौद्ध परम्परा के
अनुसार ‘बुद्ध के अनौत्सुक को देखकर ब्रह्मा उनके सम्मुख प्रकट
हुए और कहा-धर्ममय प्रासाद से शोकावतीर्ण जनता को देखिये और धर्म का उपदेश कीजिये,
जानने-समझने वाले भी होंगे। ब्रह्मा की याचना से बुद्ध ने जीवों पर करुणा
कर बुद्ध-चक्षु से लोक का देखा और पाया कि जैसा सरसी (तलैया) में कुछ कमल जल से अनुद्गत,
कुछ समोदक और कुछ जल से अभ्युद्गत होते हैं, ऐसे
ही जीव भी संसार में आध्यात्मिक विकास की नाना अवस्थाओं में है।’5 बौद्ध धर्मावलम्बी भी इस घटना की व्याख्या अलग-अलग मतानुसार करते दिखते हैं।
एक मत के अनुसार बुद्ध को देवता (ब्रह्मा) ने संसारियों का उत्पल सादृश्य दिखाया और
आध्यात्मिक विकास के धर्म प्रचार को प्रेरित किया। एक अन्य मत मानता है कि बुद्ध ने
निश्चय किया कि वे अतक्र्य निर्वाण के विषय में मौन धारण करेंगे और केवल मार्ग की देशना
करेंगे।
अब यदि उक्त
चन्द घटनाओं के आलोक में बुद्ध और बौद्ध धर्म के आविर्भाव के मूल को जानने का प्रयास
किया जाये तो कहीं न कहीं विभ्रम की स्थिति पैदा होती है। ज़रा-रोगी-मृत्यु को देखकर
सांसारिक मायामोह से विरक्ति का अनुभव कर ज्ञान की खोज में निकले राजुकमार गौतम को
सम्बोधि स्वतः ही बिना गुरु के प्राप्त होती है। ब्राह्मणीय कर्मकाण्डों, पुरोहितों के दुष्चक्र में फँसे समाज को अपने ज्ञान, वचनों के द्वारा मार्ग दिखाने वाले गौतम बुद्ध के संशय को भी किसी लौकिक प्राणी
ने नहीं अपितु स्वयं ब्रह्मा ने दूर करते हुए उनसे समाज को धर्म सम्बन्धी उपदेश देने
की याचना की थी। बुद्ध के प्रवचनों, विचारों, उपदेशों, धर्म सम्बन्धी बौद्धिक विचारों के आधार पर यह
तो आसानी से कहा जा सकता है कि गौतम ‘बुद्ध पूर्णतः बुद्धिवादी
थे। वे किसी भी तथ्य को विश्वास की कच्ची नींव पर रखना नहीं चाहते थे, प्रत्युत तर्क-बुद्धि की कसौटी पर सब तत्त्वों को कसना उनकी शिक्षा का प्रधान
उद्देश्य था।’6 ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि ऐसे पूर्ण
बुद्धिवादी व्यक्ति को मात्र तपस्या के आधार पर-बिना किसी गुरु के द्वारा-एक रात्रि
में बोधज्ञान प्राप्त होना; संसार को उपदेश देने, न देने की संशयात्मक स्थिति से बाहर लाने का कार्य ब्रह्मा जैसी अलौकिक शक्ति
द्वारा करना कितना तर्कसंगत प्रतीत होता है?
कहा जाता है
कि ‘जागतिक दुःखों से व्यथित होकर गौतम बुद्ध ने अभिनिष्क्रमण
करके प्रव्रज्या ग्रहण की थी। गया के बोधि-वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर उन्होंने प्रातिभज्ञानमय
अभिचिन्तन से अज्ञान, वेदना, तृष्णा,
उपादान, जन्म, ज़रा,
मरण, शोक आदि के रहस्य को जानकर उन्हें निष्प्रभावी
करने की पद्धति का आविष्कार किया था।’7 यदि इस पद्धति
और इसकी क्रियाविधि पर विचार किया जाये तो बुद्ध ने न तो जनम-मरण के चक्र से छुटकारा
पाने का कोई उपाय स्थापित किया था, न ही ज़रा, शोक, रोग से मुक्ति का कोई सूत्र निर्मित किया था और
न ही अपने उपदेशों, धर्म सम्बन्धी बौद्धिक विचारों के द्वारा
भी ऐसी किसी पद्धति की ओर रेखांकित किया था। उन्होंने शील अर्थात् सदाचार को जीवन में
उतारने पर बल दिया था। आज हम जिन पंचशील सिद्धान्तों की वैश्विक स्तर पर चर्चा करते
हैं, उन पंचशील सिद्धान्तों को महात्मा बुद्ध ने सर्वसाधारण के
लिए सुनिश्चित किया था। ये पंचशील सिद्धान्त हैं-
(1) अहिंसा
(2) अस्तेय (चोरी न करना)
(3) ब्रह्मचर्य (यौन दुराचार से दूर रहना)
(4) सत्य (झूठ न बोलना)
(5) नशीली वस्तुओं का सेवन न करना
महात्मा बुद्ध द्वारा वैचारिक एवं व्यावहारिक धरातल पर मानव-कल्याण
को समर्पित ये पंचशील कहीं न कहीं उस सनातन संस्कृति, हिन्दू-धर्म
का ही भाग रहे जिससे विश्रंखलित होकर एक नई धार्मिक शाखा, एक
नये धर्म ‘बौद्ध’ का सूत्रपात भारतभूमि
पर हो रहा था।
भारतीय समाज
में हिन्दू-धर्म की विशालतम समृद्ध परम्परा के मध्य बौद्ध धर्म के उदय को अपने आप में
एक अनूठी घटना कहा जा सकता है। इसके बाद भी बौद्ध धर्म के उदय की वास्तविकता को समझना
कठिन नहीं है, यदि गौतम बुद्ध की तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन
कर लिया जाये। तत्कालीन समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों- क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र- में विभक्त
था। प्रथम दो वर्णों को यद्यपि विशेषाधिकार प्राप्त थे तथापि ब्राह्मणों द्वारा जन्ममूलक
वर्ण पर जोर देकर स्वयं के सर्वोच्च होने का दावा किया जाता था। पुरोहिती और शिक्षण
कर्म को अपने अधिकार-क्षेत्र में ले चुका ब्राह्मण वर्ग अपनी सर्वोच्चता के साथ-साथ
अन्य विशेषाधिकारों के भी दावेदार बनता जा रहा था। इनमें दान लेना, करों से छुटकारा, दंडों की माफी आदि थी। अन्य वर्णों
के अपने-अपने कार्य और अधिकार थे, जिनमें वैश्यों और शूद्रों
को तनावग्रस्त, विभेदपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। वैश्यों,
शूद्रों द्वारा ब्राह्मणों के अनाधिकार कृत्यों पर क्या प्रतिक्रिया
रही होगी यह तत्कालीन सामाजिक स्थिति से आसानी से समझा जा सकता है किन्तु क्षत्रिय
वर्ग ने इसकी तीव्र प्रतिक्रिया की। क्षत्रिय शासक वर्ग के रूप में थे और वे ब्राह्मणों
के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति भी करते थे। ‘इस प्रकार
विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों अथवा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के
विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नये धर्मों के उद्भव का अन्यतम कारण हुआ।’8
इस तथ्य को
एकबारगी विस्मृत कर भी दिया जाये कि राजकुमार गौतम ब्राह्मण विरोध के चलते श्रमण को
निकले और बुद्ध बने तो भी इस तथ्य को विस्मृत नहीं किया जा सकता है कि तत्कालीन सामाजिक
परिस्थितियों ने राजकुमार गौतम को विचलित अवश्य ही किया था। इसके अतिरिक्त यह भी ऐतिहासिक
तथ्य है कि ब्राह्मणों के समान ही क्षत्रिय भी बौद्धिक-जीवन का नेतृत्व करते थे। अपने
राजकीय कार्यों से अवकाश पाकर धर्म-दर्शन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देते थे। उपनिषदों
में भी अनेक ज्ञानी क्षत्रियों का वर्णन आता है। ऐसे में राजकुमार गौतम भले ही तत्कालीन
सामाजिक परिस्थितियों से नहीं अपितु मानवीय कष्टों से विचलित होकर बुद्ध बनने निकले
किन्तु यह भी सत्य है कि सम्बोधि पश्चात वे बुद्ध बनकर तत्कालीन समाज के पुरोहितवाद,
ब्राह्मणवाद से दुःखी लोगों को छुटकारा दिलाने को निकल पड़े थे। इन ऐतिहासिक
तथ्यों के आलोक में राजाओं और उनके बाँधवों की जीवनशैली को भी विस्मृत नहीं किया जा
सकता है जो मुख्य रूप से मृगया, द्यूत, मद्यपान, स्त्रियों और युद्ध जैसे कार्यों, व्यसनों से घिरी रहती थी। राजकुमार गौतम से बुद्ध में अवतरित महात्मा ने अपने
पंचशील में कदाचित् इन्हीं व्यसनों से दूर रहने का ज्ञान दिया है। इससे इस साक्ष्य
के संकेत प्राप्त हो रहे हैं कि राजकुमार गौतम के श्रमण में ब्राह्मण विरोध न भी रहा
हो पर वह क्षत्रिय-बौद्धिकता से युक्त था जो सम्बोधि पश्चात धर्म, दर्शन, उपदेश, विचार के रूप में
ब्राह्मण विरोध के रूप में, कर्मकाण्ड विरोध के रूप में,
पुरोहितवाद के विरोध रूप में सामने आया।
तत्कालीन कतिपय
सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परम्परा के निर्वहन और उसके उच्च प्रतिस्थापन को राजकुमार गौतम
सामने आये तथा इसके द्वारा वे पुरोहिती कर्मकाण्ड का विरोध एक अलग रूप में करने में
सफल रहे। मात्र बुद्ध ने ही नहीं अपितु उस युग के श्रमणों, प्रबुद्ध
क्षत्रियों और आध्यात्मवादी ब्राह्मणों ने भी ऐसा किया। इस तथ्य को और भी सहजता से
इस रूप में समझा जा सकता है कि बुद्ध ‘सद्धर्म के पहले अनुयायी
काशी के पाँच ब्राह्मण तपस्वी थे और उनके बाद काशी का श्रेष्ठि वर्ग।’9 यह बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि गौतम बुद्ध ने अपने प्रवचनों,
संदेशों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का कार्य किया; तत्कालीन सामाजिक बुराइयों, विषमताओं, भेदभाव आदि को दूर करने का प्रयास किया। प्रकारान्त में बुद्ध दर्शन क्रान्तिकारी
रूप से बौद्ध धर्म बनकर उभरा जो ईश्वर और आत्मा को नहीं स्वीकारता था; वर्ण-व्यवस्था का खुलकर विरोध करता था। इस कारण से इसे निम्न वर्गों का विशेष
समर्थन प्राप्त हुआ। बौद्ध धर्म को मिल रहे पर्याप्त समर्थन को देखते हुए ही उसके वैचारिक-बौद्धिक
विकास की दिशा निर्धारण हेतु तथा बौद्ध समर्थकों के लिए बुद्ध ने संघों की आधारशिला
भी रखी। ‘विनय के महावग्ग से ज्ञात होता है कि सारनाथ में तथागत
की धर्मदेशना सुनकर सबसे पहले कौण्डिन्य नाम के पंचवर्गीय भिक्षु ने विमल ‘धर्मचक्षु’ प्राप्त कर उनके निकट प्रव्रज्या ली।
इसके अनन्तर अन्य पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भी ‘धर्मचक्षु’ और प्रव्रज्या का लाभ किया तथा इस प्रकार आर्यभिक्षु संघ की नींव पड़ी।’10 बौद्ध संघ का दरवाजा हर किसी के लिए खुला था, चाहे वह
किसी भी जाति का क्यों न हो। संघ में प्रवेश का अधिकार स्त्रियों को भी था और इस प्रकार
उन्हें पुरुष की बराबरी प्राप्त होती थी। इस संदर्भ में यह विचारणीय है कि ‘चुल्लवग्ग में भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की है कि स्त्रियों की प्रव्रज्या
के कारण सद्धर्म 1000 वर्षों के स्थान पर 500 वर्ष ही रहेगा।’11 स्पष्ट है कि बुद्ध संघों
में महिलाओं के प्रवेश के विरोधी थे। उन्हें सम्भवतः इस बात का भान रहा होगा कि मानव-कल्याण
को निर्मित पंचशील में जिस ब्रह्मचर्य का ज्ञान वे लोगों को दे रहे हैं, महिलाओं के संघ में प्रवेश लेने से वह खंडित हो जायेगा। कदाचित् ऐसा हुआ भी,
कालान्तर में महिलाओं की उपस्थिति से संघ व्याभिचार का केन्द्र बनने
लगे। जिन संघों का निर्माण बुद्ध ने बौद्ध धर्म के विकास के लिए किया था, उनकी दिशा और दशा को स्वयं महात्मा बुद्ध ने अनुभव कर लिया था।
भारतीय धार्मिक
आन्दोलनों के इतिहास में और भारतीय समाज की धार्मिक-सांस्कृतिक-दार्शनिक अवधारणा के
आधार पर बौद्ध धर्म का आविर्भाव एक क्रान्तिकारी घटना थी। वर्ण-व्यवस्था के कारण छुआछूत
का दंश सह रहे लोगों को अपना सा लगने वाला धर्म प्राप्त हो चुका था। सामाजिक परिवर्तनों
के प्रति सचेत लोगों को भी कर्मकाण्ड, ब्राह्मणवाद, पुरोहित कर्म से इतर नवीन संकल्पना इस धर्म में दिखलाई दे रही थी। इसके बाद
भी जो स्वरूप बौद्ध धर्म का निखरकर आना चाहिए था कदाचित् वैसा नहीं हुआ। यद्यपि बुद्ध
के निर्वाण के लगभग 200 वर्षों बाद मौर्य सम्राट अशोक द्वारा
बौद्ध धर्म ग्रहण किया गया और उसने अपने धर्मदूतों की सहायता से इसे विश्वधर्म बना
दिया तथापि वर्तमान में यह अपनी जन्मभूमि से लगभग विलुप्त सा होकर दक्षिण एशिया,
दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया के कुछ देशों में ही जीवित है। बौद्ध
धर्म की परिणति और उसके हृास के लिए एक ओर आक्रांता शासक जिम्मेवार रहे तो दूसरी ओर
स्वयं बौद्ध समर्थकों, भिक्षुओं को भी इसका उत्तरदायी ठहराया
जा सकता है। महात्मा बुद्ध द्वारा विहारों में महिलाओं के प्रवेश पर की गई भविष्यवाणी
को इसका स्पष्ट संदेश समझा जा सकता है।
धर्म को सदैव
से ही आध्यात्मिक प्रगति का साधन स्वीकारा जाता रहा है और इसी कारण ‘मार्ग’ एवं ‘यान’ रूप में धर्म की कल्पना की जाती रही। बौद्ध साहित्य के विविध ग्रन्थों के
अनुसार ‘भगवान बुद्ध ने अपने श्रोताओं के प्रवृत्ति-भेद एवं विकास-भेद
को देखते हुए मुख्यतः दो प्रकार के धर्म का उपदेश किया-हीनयान एवं महायान। हीनयान को
श्रावकयान भी कहा गया है। महायान के अन्य नाम हैं - एकयान,
अग्रयान, बोधिसत्त्वयान और बुद्धयान। समस्त अठारह सम्प्रदायों में विभक्त बौद्ध धर्म हीनयान
के अन्तर्गत है।’12 महात्मा बुद्ध द्वारा अपने श्रोताओं
की स्थिति के अनुसार जो भेद हीनयान एवं महायान के रूप में किये गये, कालान्तर में यही भेद बौद्ध धर्म के पराभव का कारक भी बने। ‘प्रारम्भिक बौद्ध धर्म एवं हीनयान में साधना अपेक्षाकृत दुष्कर है। प्रत्येक
मनुष्य को अपने प्रयत्नों से सांसारिक सुखों को त्यागकर दुःखों से छुटकारा पाना होता
है। साधारण मनुष्य के लिए ऐसा करना कठिन प्रतीत होता है। इसके उलट महायान में बुद्ध
और बोधिसत्त्व नाना प्रकार से मार्ग में सहायक बन जाते हैं। अवलोकितेश्वर के नाम लेने
से ही मनुष्य नाना कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है। मूर्तियों के सहारे बुद्ध और बोधिसत्त्व
बौद्धों के समक्ष प्रत्यक्षवत् समुपस्थित हो उठते हैं।’13 यही कारण रहा कि सद्धर्म के प्रचार के समय अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को सरल
और मूर्त रूप देने का प्रयास किया गया, उसने क्रमशः महायान को
जन्म दिया। यही विभेद आगे चलकर व्यापक रूप में सामने आया और वर्ग-विभेद को दूर करने
वाला धार्मिक-दर्शन स्वयं ही विभेद का शिकार बन गया। हीनयान और महायान के रूप में गौतम
बुद्ध द्वारा प्रस्तुत बौद्धिक-विभेद उपासना प्रवृत्ति में परिवर्तित होकर व्यापक विभेद
के रूप में दिखाई दिया।
हीनयान और महायान
का यह विभेद धार्मिक क्रियाकलापों, भाषा, सम्प्रदाय, दर्शन आदि में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने
लगा। शनैः-शनैः यह विभेद अपना विस्तारक रूप धारण करता रहा जो अन्ततः बौद्ध धर्म के
हृास का एक कारक समझा जा सकता है। इस विभेद ने इतना विस्तार ले लिया कि हीनयान और महायान
महात्मा बुद्ध को भी अलग-अलग रूपों में देखने लगे। हीनयान सम्प्रदाय के लोग बुद्ध को
केवल एक महान व्यक्ति के रूप में स्वीकारते हैं जबकि महायान के लोग बुद्ध की उपासना
देवतुल्य रूप में करने लगे। इसके अतिरिक्त हीनयान सम्प्रदाय के लोग बोधिसत्त्व में
विश्वास न करने वाले, मूर्ति पूजा न करने वाले, केवल अपने निर्वाण की चिन्ता करने वाले, निर्वाण प्राप्ति
के लिए भिक्षु बनने की अनिवार्यता वाले माने गये। इसके विपरीत महायान बोधिसत्त्व को
स्वीकारते हैं, बुद्ध की मूर्ति की उपासना करना, अपने साथ-साथ अपने साथियों के निर्वाण की भी चिन्ता करना, निर्वाण के लिए भिक्षु बनने की अनिवार्यता न मानने वाले रहे हैं। इससे स्पष्ट
है कि महात्मा बुद्ध जिस दर्शन, जिन विचारों, जिस जीवनशैली, आचार-विचार के द्वारा बौद्ध धर्म को सम्पूर्ण
समाज पर प्रकीर्णित करना चाहते थे, वह बौद्ध धर्म अनुयायियों
के आपसी विभेद के चलते सम्भव नहीं हो सका।
यदि धार्मिक
संकल्पना को देखें तो बौद्ध दर्शन ने कहीं न कहीं उस विचारधारा को एक नये सिरे से प्रचारित-प्रसारित
करना शुरू किया जो किसी रूप में हिन्दू-धर्म का अंग हुआ करती थी। बुद्ध के पंचशील तो
हिन्दू धर्म-दर्शन का ही भाग कहे जा सकते हैं, यदि बौद्ध धर्म
और हिन्दू-धर्म में कोई विशेष अन्तर दिख रहा था तो वह था मूर्ति पूजा का विरोध,
कर्मकाण्डों का विरोध, ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का विरोध। जैसा कि
बहुलता में होता आया है कि किसी भी धर्म के विकास की अनन्तर यात्रा में उसमें कर्मकाण्ड
सम्बन्धी दोष, सामाजिक बुराइयाँ परिलक्षित होने लगती हैं,
कुछ ऐसा ही बौद्ध धर्म के साथ भी हुआ। कर्मकाण्डों की शुरुआत होने लगी,
संघ में प्रवेश के त्रिरत्नों (बुद्ध, धर्म,
संघ) के सुनियोजन में कमी आने लगी (यद्यपि यह व्यवस्था आज भी अपनी महत्ता
स्थापित किये है) संघ व्याभिचार का केन्द्र बनने लगे, आमजन की
भाषा, पालि के स्थान पर विद्वानों
की संस्कृत भाषा को अपनाया जाने लगा, तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश
होने लगा। देखा जाये तो तत्कालीन समाज ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था
आदि से त्रस्त होकर ही व्यक्तित्व की स्वतन्त्रता हेतु, वैचारिक
स्वतन्त्रता हेतु, मध्यम मार्ग अपनाने हेतु ही बौद्ध धर्म की
शरण में आया था और प्रकारान्त में उसे वही बुराइयाँ संघ में, बौद्ध धर्म-दर्शन में दिखाई दी तो वह इससे छिटक कर अलग हो गया।
इसके अतिरिक्त
ब्राह्मण-धर्म की पुनर्स्थापना, राजकीय प्रश्रय में कमी आना,
मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन होना, राजपूतों का
उत्कर्ष, विदेशियों के आक्रमण भी बौद्ध धर्म के हृास का कारण
बने। यह स्थिति विचार करने योग्य है कि जिस तेजी से बौद्ध धर्म का विकास हुआ वह उसी
तेजी से समाप्ति की ओर भी गया। सैद्धान्तिक कारण कुछ भी रहे हों पर व्यावहारिकता में
देखा जाये तो कालान्तर में बौद्ध धर्म अपनी विकासात्मक प्रक्रिया से इतर हिन्दू-धर्म
के, उसके क्रियाकलापों, उसके दर्शन के विरोधात्मक
रूप में कार्य करने लगा। बौद्ध धर्म चिन्तकों का निशाना ब्राह्मण वर्ग या कहें कि हिन्दू
सवर्ण वर्ग बनने लगा। दया, करुणा, मानव-कल्याण
का विचार देते-देते बौद्ध धर्मावलम्बी हिन्दू उच्च वर्ग को कोसने का कार्य करने लगे,
इसके मूल में वे वर्ण-व्यवस्था विरोधी लोग थे जो हिन्दू-धर्म में निम्न
वर्ण से आते थे। इस वर्ग ने बौद्ध धर्म में स्वयं को वर्ण-व्यवस्था से मुक्त पाकर स्वविकास,
बौद्धिक विकास, वैचारिक विकास करने के स्थान पर
हिन्दू उच्च वर्ग पर, ब्राह्मण वर्ग पर दोषारोपण करने का कार्य
किया। सम्भव है कि इससे वह उच्च वर्ग बौद्ध धर्म से जुड़ने में असहज महसूस करने लगा
हो जो बौद्ध धर्म को, दर्शन को मानव-कल्याण हेतु स्वीकारता था;
सम्भव है कि वे बौद्ध मतावलम्बी पुनः हिन्दू धर्मोन्मुख हुए हों जो ब्राह्मण
कर्मकाण्ड, पुरोहिती के चलते बौद्ध धर्म में आये हों;
सम्भव है कि हिन्दू-धर्म को, ब्राह्मण वर्ग को
बचाने के लिए अनेक उच्चवर्गीय लोगों ने अपने आपको एकजुट करके जागरण का कार्य किया हो.........
कुछ भी सम्भव हो सकता है और यह ऐतिहासिक शोध का विषय है।
वर्तमान स्थिति
यह है कि स्वयं बौद्ध धर्मावलम्बियों में इसको लेकर विवाद बना हुआ है कि महात्मा बुद्ध
की असली विरासत किसके पास है? हीनयान और महायान में विभक्त हुई
विभ्रम की स्थिति ने बौद्ध धर्म को, दर्शन को एक विचारधारा बना
दिया। इस विचारधारा को जो जैसा चाहे वैसा तोड़-मरोड़ कर पेश कर सकता है। गौतम बुद्ध के
पंचशील सिद्धान्त को सार्वभौम समझकर बौद्ध धर्म को सर्वोच्च धार्मिक सत्ता पर प्रतिस्थापित
करने के प्रयास में अवसरवादी नजरिया भी सामने आने लगा। इससे लाभान्वित लोगों ने स्वार्थपरक
सोच को अपना कर ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ की प्रार्थना को भुला दिया। वहीं दूसरी ओर बौद्ध धर्म से विचलित, अलाभकारी लोगों ने बौद्ध दर्शन की बौद्धिकता को अपनी वैचारिक स्वतन्त्रता से
छिन्न-भिन्न करना प्रारम्भ कर दिया। किसी ने सिद्धार्थ के गृह-त्याग को ज्ञान की खोज
बताया तो किसी ने उनकी पलायनवादी प्रकृति; किसी ने बुद्ध को शान्ति,
अहिंसा का प्रचारक बताया तो किसी ने धार्मिक आन्दोलन का सूत्रधार बताया;
कोई आज भी बुद्ध का नाम लेकर शान्ति, अहिंसा,
प्रेम का सपना देखता है तो कोई बुद्ध को मनुवादी व्यवस्था को कोसने का
हथियार बनाता है; किसी के लिए बुद्ध निर्वाण प्राप्ति का मार्ग
हैं तो किसी के लिए सत्ता पाने का माध्यम। इस तरह नहीं लगता कि लगभग मृतप्राय हो चुके
बौद्ध धर्म को पुनर्जीवन प्राप्त हो सकेगा। बौद्ध धर्म के आविर्भाव का उद्देश्य कदापि
किसी धर्म का विरोध करना नहीं था, किसी व्यवस्था का विरोध करना
नहीं था। महात्मा बुद्ध ने एक महापुरुष के रूप में समाज को दिशा देने का कार्य किया
था, अपने उपदेशों, वचनों के द्वारा वे समाज
में फैली विषमताओं को, विसंगतियों को, भेदभाव
को मिटाना चाहते थे। ऐसा कर पाने में वे कितने सफल रहे यह एक अलग विषय हो सकता है किन्तु
बौद्ध धर्म के आविर्भाव से लेकर वर्तमान तक की यात्रा से यह तो स्पष्ट है कि महात्मा
बुद्ध के उपदेशों को, विचारों को स्वयं उन्हीं के अनुयायियों
द्वारा सकारात्मक रूप से आत्मसात् नहीं किया गया। देखा जाये तो वर्तमान संदर्भों में
समाज को शान्ति, प्रेम, अहिंसा की आवश्यकता
है, वह चाहे किसी भी धर्म के द्वारा प्राप्त हो। यदि बौद्ध धर्मावलम्बियों
को ऐसा लगता है कि आज भी समाज को, विश्व को प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा का संदेश देने
के लिए बौद्ध धर्म ही एकमात्र विकल्प है तो इन धर्मानुयायियों को बौद्ध धर्म में व्याप्त
हो चुकी उन बुराइयों को दूर करना होगा जिनके कारण बौद्ध धर्म रसातल की ओर गया। महात्मा
बुद्ध को भगवान से इतर महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित कर उनके उपदेशों, विचारों को समाज के बीच प्रतिस्थापित करना होगा क्योंकि समाज का आदर्श कोई
महापुरुष तो हो सकता है, ईश्वर कदापि नहीं। यदि बौद्ध धर्मावलम्बी
इस धर्म को पुनर्जीवन प्रदान करना चाहते हैं; उसके दर्शन का प्रचार-प्रसार
चाहते हैं; समाज में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता स्थापित करना
चाहते हैं तो समाज में पुनः बुद्ध और बौद्ध दर्शन को, उसके ज्ञान
को, उसकी शिक्षाओं को केन्द्रबिन्दु बनाना होगा किन्तु उससे पूर्व
उसका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है।
संदर्भ-
1. बौद्ध तथा जैन धर्म, प्राक्कथन – डॉ० महेन्द्रनाथ सिंह
2. बुद्ध जीवन और दर्शन – डॉ० सद्धातिस्स, पृ०
13
3. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास – डॉ० गोविन्दचन्द्र पाण्डे, पृ० 39
4. ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो
निपुणो पण्डितवेदनीय। आलयरामा खो पनाय पजा आलयरता आलयसम्मुदिता। आलयरामयखो पन पजाय....दुद्दस
इदं ठानं यदिदं इदप्पच्चयता-परिच्चसमुप्पादो, इदं पि खो ठान सुद्दसं
यदिदं.....निब्बानं। अहं चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे
न आजानेय्युं, सो ममस्य किलमथो, सा ममस्य
विहेसा।’ मज्झिम ना०, जि०1,
पृ० 217
5. बुद्ध : दर्शन, साधना और साहित्य – डॉ० दिनेशचन्द्र द्विवेदी,
पृ० 45
6. बौद्ध दर्शन मीमांसा – पं० बल्देव उपाध्याय, पृ०
30
7. बुद्ध : दर्शन, साधना और साहित्य – डॉ० दिनेशचन्द्र द्विवेदी,
पृ० 52
8. प्राचीन भारत - रामशरण वर्मा, पृ० 94, पाठ्यपुस्तक, एनसीईआरटी, कक्षा-11
9. बुद्ध : दर्शन, साधना और साहित्य – डॉ० दिनेशचन्द्र द्विवेदी,
पृ० 45
10. बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास - डॉ० गोविन्दचन्द्र पाण्डे, पृ० 106
11. वही, पृ० 365
12. वही, पृ० 242
13. वही, पृ० 247
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