विशुद्ध राजनैतिक कदम है पुरस्कार वापसी

          कई भाषाओं के साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार इस आरोप के साथ लौटाने आरम्भ कर दिए कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, लेखकों-साहित्यकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट आ गया है. प्रो० कलबुर्गी, गोविन्द पानसरे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्याओं के साथ-साथ दादरीकांड में इखलाक की हत्या को सम्बद्ध कर शुरू पुरस्कार वापसी को राजनीति के रूप में देखा जा रहा है. पुरस्कार लौटते साहित्यकारों को इस पर विचार करना चाहिए कि उनके साथ देश के अन्य साहित्यकार, लेखक क्यों खड़े नहीं दिख रहे हैं? इस प्रकरण को सहयोग मिलने से ज्यादा साहित्यकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, आम नागरिकों का विरोध सहना पड़ रहा है. स्पष्ट है कि इस विरोधी स्वर में कहीं न कहीं कुछ ऐसा है जो इस मामले को जनता से जोड़ नहीं पा रहा है. ये सही है कि किसी भी हत्या का समर्थन नहीं किया जा सकता है किन्तु उतना सत्य यह भी है कि किसी की मौत पर किसी भी तरह की राजनीति करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. इस विरोध में कुछ ऐसा ही हो रहा है. कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी सहित अन्य दो लोगों की हत्या के विरोध में शुरू हुआ सिलसिला इखलाक की मौत तक आ पहुँचा है. दादरी में जो कुछ हुआ उसे शर्मनाक कहा जायेगा, जबकि गाय का माँस पकाए जाने की एक खबर के चलते  गाँव की उन्मादी भीड़ ने इखलाक की हत्या कर दी. इसके बाद उस गाँव के लोगों ने आपस में सहमति बनाते हुए दो-तीन दिनों में ही आपसी सामंजस्य से वहाँ का वातावरण सामान्य बना लिया. कितनी विद्रूपता है कि जिस गाँव में ये दुखद घटना घटी वहाँ तो माहौल सही बना लिया गया किन्तु जिन साहित्यकारों, लेखकों का दायित्व होता है कि वे सामाजिक सौहार्द्र को बनाये रखने में सहयोग प्रदान करें वे सामाजिक वातावरण बिगाड़ने में लगे हुए हैं, मौत पर राजनीति करने में लगे हुए हैं. पुरस्कार वापसी में स्पष्ट रूप से राजनीति इस कारण समझ आती है कि देश की सहिष्णुता को लेकर चिंतित साहित्यकारों ने किसी भी सरकारी सुविधा को वापस नहीं किया है. उनके द्वारा पासपोर्ट सुविधा, विद्युत व्यवस्था, परिवहन व्यवस्था आदि का नकारना सरकार के खिलाफ खड़ा होना दर्शाता. सभी को भली-भांति ज्ञात है कि साहित्य अकादमी विशुद्ध रूप से स्वायत्त संस्था है, किसी भी सरकार का इस पर किसी भी तरह से न तो हस्तक्षेप है और न ही किसी भी तरह से नियंत्रण. ऐसे में साहित्यकारों द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाकर अपनी ही बिरादरी का विरोध किया जा रहा है. ऐसे में महज पाँच दिन पूर्व दिए गए अपने ही बयान से मुकरते हुए मुनव्वर राना का पुरस्कार वापसी की घोषणा करना राजनीति की तरफ ही इशारा करता है.

          यदि साहित्यकारों के पुरस्कार वापसी के लिए बताये जा रहे समस्त कारकों को समग्र रूप से देखा जाये तो इसके पीछे केन्द्र सरकार का विरोध, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध, हिन्दू धर्म का विरोध, अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुस्लिमों के समर्थन में खड़े होना दिखाई देता है. यदि ऐसा नहीं होता तो देश में हत्याओं का, अपराधों का, असहिष्णुता फैलने का कोई पहला अवसर नहीं है. चलिए मान भी लिया जाये कि ‘जब जागो तभी सबेरा’ वाली भावना के साथ इन साहित्यकारों का जमीर जागा और ये सब देश की शांति-व्यवस्था सुधारने के लिए, सहिष्णुता की स्थापना के लिए उठ खड़े हुए. इसके बाद भी कई सारे सवाल उभरते हैं कि आखिर ऐसा बिहार चुनाव के समय ही क्यों हुआ? ये किसी से भी छिपा नहीं है कि लोकसभा चुनाव के समय सम्पूर्ण देश में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के नाम से अल्पसंख्यकों, मुस्लिमों में भय पैदा किया जा रहा था. एक अंग्रेजी समाचार-पत्र में भारतीय लेखकों ने नरेन्द्र मोदी को हराने की अपील भी की गई थी. अब जबकि बिहार चुनाव सामने हैं, ने केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भारतीय छवि सुदृढ़ होकर सामने आई है, नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व जिस तरह से वैश्विक स्तर पर चमका है उससे गैर-भाजपाई मानसिकता वाले एक बहुत बड़े वर्ग में उथल-पुथल का वातावरण जन्म ले चुका है. इखलाक की हत्या सहित अन्य तीन व्यक्तियों की हत्या को ऐसे समय में उठाकर ये साहित्यकार अप्रत्यक्ष रूप से उस महागठबंधन के लिए काम कर रहे हैं जो बिहार में अभी भी अपनी ज़मीन तलाशने में लगा हुआ है.

          इसके अलावा, क्या किसी को किसी के धर्म से खिलवाड़ करने की, उसका मखौल बनाये जाने की स्वतंत्रता मिलनी चहिये? हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों को दूर करने का अभियान चलाने वाले साहित्यकार कलबुर्गी और समाजसेवी दाभोलकर, पानसरे के कृत्यों की चर्चा कभी इन साहित्यकारों द्वारा नहीं की गई है. आखिर क्यों? ये सब हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों को दूर करने का कार्य करते थे. क्या अंदाज़ा लगाया जाये कि ये हिन्दू धर्म के वफादार थे? यदि ये सामाजिक हित में ऐसा कार्य कर रहे थे तो केवल हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों के विरुद्ध कार्य क्यों? अन्य धर्मों के अंधविश्वासों को दूर करने की चेष्टा ये क्यों नहीं कर रहे थे? ये स्वीकार लिया जाये कि ये सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म का भला चाहते थे तो साहित्यकार महोदय द्वारा हिन्दू देव की मूर्ति पर पेशाब करने का दाम्भिक बयान देना किस तरह से अन्धविश्वास को दूर करता ये समझ से परे है.

अब जबकि वे लोग उन्हीं की तरह के धार्मिक कट्टर व्यक्तियों अथवा संगठन का शिकार हो गए हैं तो उनके अनुवर्ती अनेकानेक लोग जो किसी न किसी रूप में खुद को हिन्दू धर्म के विरुद्ध खड़ा मानते हैं, उनकी मौत पर राजनीति करते दिख रहे हैं. यहाँ उनको कट्टर कहने के पीछे का भावार्थ ये है कि अपने विचारों को किसी दूसरे पर थोपना भी कट्टरता है. ऐसे लोग भूल जाते हैं कि वे धार्मिक अन्धविश्वास दूर करने के नाम पर अपने अन्धविचार शेष समुदाय पर थोप रहे हैं. विचारों को, विश्वासों को स्वीकार न करने पर ऐसे लोग कभी हिन्दू देवी-देवताओं को दारू पिलाते हैं, कभी उन पर थूकने का काम करते हैं, कभी उन पर पेशाब करने जैसा बयान देते हैं. बहरहाल, हिन्दू धर्म के विरुद्ध कदम उठाने, लेखनी चलाने वाले विरोध के बहाने हिन्दू धर्म पर, केन्द्र सरकार पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साध रहे हैं. साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता, मुस्लिम व्यक्ति की हत्या ने साहित्यजगत को हिलाकर रख दिया. ये लोग भूल गए कि देश में इससे पहले की सरकारों में भी भयानक-भयावह काण्ड हुए हैं जिन्होंने एक व्यक्ति को नहीं कई-कई परिवारों को मौत की नींद सुलाया है, कई-कई शहरों को उपद्रव की आग में झुलसाया है.


दरअसल पुरस्कार वापसी के ज़रिये इन लोगों का हमला केन्द्र सरकार पर तो है ही साथ ही साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पर भी है. कथित रूप से साहित्यकारों की वामपंथी बिरादरी को एक हिन्दीभाषी का अकादमी का अध्यक्ष बन जाना फूटी आँख भी नहीं सुहा रहा है. ऐसे में साहित्यकार की हत्या और दादरी कांड ने उनके मन की मुराद पूरी कर दी. इसके अलावा ये लामबंदी गैर-राजनैतिक होने के बाद भी विशुद्ध राजनैतिक है. यदि पुरस्कार लौटाते इन साहित्यकारों को वर्तमान केन्द्र सरकार से इतनी ही परेशानी है, इतनी ही समस्या है तो पुरस्कार लौटाने के साथ-साथ वे सारी सुविधाएँ लेना भी बंद करें जो केन्द्र सरकार की कृपा-दृष्टि से प्राप्त हो रही हैं/उसकी कृपा से प्राप्त की जाती हैं. दरअसल इन साहित्यकारों का मकसद अपने इस विरोध से वैश्विक स्तर पर केन्द्र सरकार को बदनाम करना है; उस सरकार के पक्ष में अपनी भक्ति दर्शाना है जिसने उन्हें पुरस्कार-सम्मान से नवाजा था. यहाँ सवाल उठता है कि क्या जिस साहित्यकार की मौत से, जिस सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या से, जिस दादरी कांड से पुरस्कार वापस करते इन साहित्यकारों का दिल पसीज रहा है, उनकी सहायता के लिए इनमें से कौन-कौन से साहित्यकार जागे? कम से कम ऐसे लोग साहित्यकार तो नहीं ही कहे जा सकते जो समाज में विभेदकारी स्थिति को पैदा करके संवेदना का नाटक कर रहे हैं. ऐसे लोगों को यदि दादरी के इखलाक की हत्या का दर्द है और विदर्भ या बुन्देलखण्ड के किसानों की आत्महत्याओं का दुःख नहीं है तो वे साहित्यकार नहीं सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक दलों के प्रवक्ता सरीखे हैं, ये साहित्यकार नहीं दुराग्रही राजनैतिक समर्थक हैं.

ये आलेख जनसंदेश टाइम्स, दिनांक 20-10-2015 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित 

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