भारतीय नागरिकों का सशक्त अधिकार है सूचना का अधिकार अधिनियम

          स्वतंत्र भारत में जानकारी प्राप्ति हेतु आम नागरिक को किस कदर भटकना पड़ता था, ये कष्ट वो ही जानता है जिसने इसे भोगा हो। शासकीय गोपनीयता कानून, जो ब्रिटेन में पहली बार 1889 में बना, की आड़ में जानकारियों को गुप्त रख लिया जाता था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रेस-विधि जाँच समिति ने 1948 में ही सरकार से आग्रह किया कि व्यापक राज्यहित एवं जनहित में इस कानून को उपयोग में लाया जाये। प्रथम प्रेस आयोग, 1954 ने भी सरकार से इसी बात को दोहराया। आयोग ने कहा कि किसी प्रपत्र पर गोपनीयलिखने मात्र के बाद उसका प्रकटीकरण किसी भी रूप में अपराध नहीं माना जाना चाहिए यदि उसका प्रकटीकरण किसी भी तरह से राज्यहित अथवा प्रशासन के विरुद्ध न हो। प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग 1968, भारतीय विधि आयोग 1971, भारतीय प्रेस परिषद् 1981, द्वितीय प्रेस आयोग 1982 आदि ने समय-समय पर गोपनीयता कानून में व्यापक संशोधन की बात को उठाया।

वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में भी सन् 1946 में एक प्रस्ताव में कहा गया कि सूचना का अधिकार मनुष्य का बुनियादी अधिकार है तथा यह उन सभी स्वतन्त्रताओं की कसौटी है, जिन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ ने प्रतिष्ठित किया है। इसी तरह से सन् 1948 में अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने घोषणा की कि जानकारी पाने की इच्छा रखना, उसे प्राप्त करना तथा किसी माध्यम द्वारा जानकारी एवं विचारों को फैलाना मनुष्य का मौलिक अधिकार है। देश में बदलाव करने की पहल होने लगी। इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ, हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ, हिम्मतलाल बनाम पुलिस आयुक्त, अहमदाबाद आदि वादों और विभिन्न संगठनों के कार्यों के मध्य से सूचना के अधिकार की राह बनती दिखाई दी। इस कार्य को सफलता के मुकाम पर पहुँचाने में राजस्थान के किसानों का बहुत बड़ा योगदान है। राजस्थान के किसानों ने अरुणा राय एवं निखिल डे के नेतृत्व में हमारा पैसा, हमारा हिसाबजैसा व्यापक आन्दोलन शुरू कर सूचना के अधिकार को देश में स्थापित करने का श्रेय प्राप्त किया। राजस्थान में आन्दोलन के परिणामस्वरूप वहाँ के मुख्यमंत्री को विधानसभा में यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि राजस्थान ऐसा पहला राज्य होगा जहाँ विकास कार्यों से सम्बन्धित किसी भी योजना की फोटोकॉपी आमजनता को उपलब्ध करा दी जायेगी।

देश में सूचना का अधिकार लागू करने की दिशा में कार्य सन् 1989 में श्री वी0पी0सिंह की सरकार द्वारा शुरू कर दिया गया था। इसके बाद भी जनता को सूचना देने के नाम पर शासकीय गोपनीयता कानून का हवाला देकर टहलाया जाता रहा। समूचे विश्व में चल रही परिवर्तन की प्रक्रिया से देश भी बहुत दिनों तक अछूता नहीं रह सकता था। दिल्ली विधानसभा ने सन् 2001 में सूचना का अधिकार विधेयक पारित किया गया। इसे अक्टूबर 2001 से लागू भी कर दिया गया। इसमें दिल्ली राज्य सरकार के 119 विभागों से सम्बन्धित सूचनाओं को प्राप्त किया जा सकता था। दिल्ली में प्रारम्भ हुए इस आन्दोलन के बाद से आम नागरिकों के साथ-साथ शासन-प्रशासन को भी इस अधिकार की महत्ता पता चली। इससे जहाँ सामान्यजन को सूचनाओं की प्राप्ति होना सम्भव जान पड़ी वहीं सूचनाधिकार का उपयोग पत्रकारिता में भी देखने को मिला। झारखण्ड में प्रभात खबर समाचार पत्र ने एक ट्रस्ट की सम्पत्ति के सम्बन्ध में सम्मानजनक ढंग से सूचनाओं को प्राप्त करके समूचे मामले को निपटाया। झारखण्ड में इस एक उदाहरण के बाद विधानसभा गेस्टहाउस प्रकरण, विधानसभा में अनियमित नियुक्तियों आदि कई मामलों का भी पर्दाफाश हुआ।

इन समवेत प्रयासों कर सकारात्मक परिणाम यह रहा कि सूचना का अधिकार लागू करने वाला भारत दुनिया का 61वां देश है। यहाँ विशेष तथ्य यह ध्यान रखना होगा कि सूचनाधिकार को केन्द्रीय कानून बनने के पूर्व देश के नौ राज्यों-तमिलनाडु (1997), गोवा (1997), राजस्थान (2000), कर्नाटक (2000), दिल्ली (2001), असम (2002), मध्यप्रदेश (2002), महाराष्ट्र (2002), जम्मू-कश्मीर (2004)-में यह अधिकार लागू था। केन्द्रीय स्तर पर इस ओर ठोस कदम की शुरूआत सन् 2001 में हुई जबकि संसद की स्थायी समिति ने सूचना स्वातन्त्र्य विधेयक को अनुमोदित कर दिया जिसे सन् 2002 में पारित किया गया। तमाम सारी आपत्तियों के बीच अन्ततः मार्च 2005 को एक प्रस्ताव संसद में पेश किया गया। इस प्रस्ताव को 144 संशोधनों के साथ लोकसभा में पारित किया गया। इसी वर्ष 12 मई को राज्यसभा में इसे पारित करने के साथ ही 12 जून 2005 को राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति दे दी और 12 अक्टूबर 2005 से ये अधिनियम पूरे देश (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) में लागू हो गया। सूचनाधिकार अधिनियम से देश में नये लोकतन्त्र का उदय दिखाई देने लगा था। गोपनीयता कानून के नाम पर जिन सूचनाओं पर पर्दा डाल दिया जाता था, वे सारी सूचनाएँ अब इस अधिकार के माध्यम से प्राप्त होने लगीं थीं।

सूचनाधिकार का उपयोग केवल किसानों, मजदूरों, राशनकार्ड, मस्टररोल, वेतन भुगतान तक ही सीमित नहीं रह गया था। इससे शासन-प्रशासन के कार्यों में अनियमितताओं, कमियों, भ्रष्टाचार को उजागर किया जाने लगा। सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली में भ्रष्टाचार के उजागर होने के साथ ही मंत्रालयों के कार्यों में अनियमितताओं का मिलना, मंत्रियों द्वारा की जा रही विसंगतियों का पाया जाना भी प्रमुख रहा है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से लाभान्वित होने वालों की सूची निकलवाने का मामला हो, जेपी नगर के किसान द्वारा कृषि बजट में आय-व्यय के आँकड़ों को प्राप्त कर सही तस्वीर ज्ञात करने की कोशिश, बोफोर्स कांड का हिसाब माँगने का उच्चस्तरीय प्रयास, महाराष्ट्र में स्थानान्तरण को उद्योग बना देने की साजिश का भंडाफोड़ होना, शैक्षणिक ऋण प्राप्त करने में सूचनाधिकार का उपयोग आदि सफलता को ही साबित करते हैं। आयोग द्वारा मेरठ के अपर जिला जज को दण्डित करने का मामला, प्रमुख सचिव गृह को सूचना आयोग उत्तर प्रदेश में तलब करने का आदेश, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के कुलपति को राज्य सूचना आयोग द्वारा मिला नोटिस, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल द्वारा राज्य सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त एम00खान को निलम्बित करने की कार्यवाही आदि स्पष्ट रूप से आयोग के तथा शासन के कड़े कदमों को दर्शाते हैं। इसी तरह से राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के अन्तर्गत खुले कॉमन सर्विस सेंटर के माध्यम से ई-आवेदन कर सूचना प्राप्ति, बिहार सरकार द्वारा 29 जनवरी 2007 से जानकारी नामक कॉल सेंटर के द्वारा सूचनाओं की प्राप्ति जैसे कदम भी उत्साहित ही करते हैं।

          इसके बाद भी समय-समय पर सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या किये जाने, सूचनाओं का न मिलना, आवेदक को परेशान करना, डराना, धमकाना, मारना, पीटना आदि इसका सूचक है कि भ्रष्टाचारी तन्त्र किसी भी रूप में इस अधिकार के उपयोग करने वालों के बीच हताशा-निराशा को भर देना चाहता है। इस तरह की दमनात्मक कार्यवाहियों के बावजूद सूचनाधिकार के प्रति सकारात्मक रूप से कार्य कर रहे लोगों के हौसलों में किसी तरह की कमी नहीं आई है। जनता के मध्य इस बात को लेकर एक प्रकार की आश्वस्ति है कि अब उसके पास एक प्रकार का ऐसा अधिकार है जिसके द्वारा वह देश की संसद तक से सूचनाओं की प्राप्ति कर सकता है। यदि देश की कार्यपालिका के पास शासकीय गोपनीयता कानून है, विधायिका के पास संसदीय विशेषाधिकार है, न्यायपालिका के पास न्यायालय की अवमानना सम्बन्धी कानून है तो भारतीय नागरिकों के पास कारगर और अचूक सूचना का अधिकार है। लाभ और सफलता की कहानियों के मध्य जनता को कमजोर करने वाली स्थितियाँ भी जन्म लेंगीं किन्तु हमें यह भी याद रखना होगा कि जनता को मिला अधिकार अभी अपनी बाल्यावस्था में है। दौड़ने की कोशिश में यह कई बार गिरेगा, कई बार ठोकर भी खायेगा किन्तु हमें इसका दामन नहीं छोड़ना है। आज नहीं तो कल यह समाज में स्वच्छ और पारदर्शी व्यवस्था बनाने के लिए अपनी पूरी ताकत के साथ दौड़ता दिखाई देगा।

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उक्त आलेख जन्सदेश टाइम्स, दिनांक १६-१०-२०१५ के सम्पादकीय में प्रकाशित किया गया है.

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