गंभीर बदलावों के लिए सकारात्मकता आवश्यक है

लोकतान्त्रिक व्यवस्था की परिपक्वता इस बात से प्रदर्शित होती है कि उस लोकतन्त्र के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने वालों का बहुमत कितना है। यह सम्भवतः विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की विडम्बना ही कही जायेगी कि यहाँ लोकतन्त्र की विशेषताओं को मानने के बाद भी लोकतन्त्र के प्रति सच्ची आस्था व्यक्त करने वालों की संख्या में लगातार गिरावट सी आती जा रही है। एक समय तो यह भी कहा जाने लगा था कि सम्भवतः हम अपने लोकतन्त्र को ही गँवा बैठें। लगातार बढ़ते धनबल और बाहुबल के कारण से एक सामान्यजन, एक आम आदमी स्वयं को सिर्फ और सिर्फ शोषित के रूप में ही देख-समझ रहा था। ऐसे विषम हालातों के बीच चुनाव आयोग की सख्ती और सक्रियता से लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पुनर्जीवन सा देखने को मिल रहा है।

इस पुनर्जीवन के मध्य ही अन्ना आन्दोलन ने देश की उस सुसुप्त जनता के अन्दर भी सतत ऊर्जा का प्रवाह कर दिया जिसने यह मान ही लिया था कि देश में न तो लोकतन्त्र को सँभाला जा सकता है और न ही भ्रष्टाचार से लड़ा जा सकता है। देश की जनता का उठ खड़ा होना और चुनाव आयोग की सक्रिय कार्यप्रणाली ने जागरूकता के स्तर को बढ़ाया तथा परिवर्तनकारियों के मन में भी नये-नये विचारों का सूत्रपात किया। इन्हीं विचारों की उत्पत्ति में राइट टू रिकॉल, राइट टू रिजेक्ट जैसे क्रान्तिकारी कदमों का आगाज हुआ।

यह देखने और सुनने में बहुत ही अच्छा सा, सुखद सा एहसास देता है कि देश की आम जनता जो अपने मताधिकार से अपना प्रतिनिधि सदन में पहुँचाने का कार्य करती है वह अपने अधिकार का प्रयोग करके उन्हें वापस बुला भी सकती है। इस सुखद एहसास के साथ एक और कटु सत्य यह भी है कि आजादी के इतने सालों के बाद भी हमारे मतदाता अभी उस परिपक्व लोकतन्त्र को स्थापित नहीं कर सके हैं जहाँ से हम अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार प्राप्त कर सकें। हम देखें तो अभी भी हमारा मतदाता, हमारे राजनीतिज्ञ जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे संकुचित इरादों के साथ लोकतान्त्रिक प्रणाली को सशक्त बनाने का स्वप्न देश की जनता को दिखाते हैं। हमारे आसपास आज जिस तेजी से क्षेत्रीय दलों का जन्म हो रहा है उनमें से एक भी दल ऐसा नहीं है जो विशुद्ध विकास के नाम पर जनता के बीच आया हो। सभी के जन्म का एकसूत्रीय आधार जातिगत राजनीति ही रहा है। ऐसी स्थिति में हम राइट टू रिकॉल की माँग तो कर रहे हैं पर उसकी गम्भीरता को नहीं समझ रहे हैं।

जिस देश में व्यापक प्रचार-प्रसार के बाद भी मतदान का प्रतिशत बमुश्किल 60-65 प्रतिशत के मध्य ही झूलता रहता हो; जहाँ का मतदाता मतदान के दिन बजाय मतदान की गम्भीरता दिखाने के अपने मित्रजनों-परिवारीजनों के साथ पिकनिक मनाना पसंद करता है; जहाँ मतदान को लेकर भी धर्मगत-जातिगत सोच दिखाई देती हो; जहाँ मतदाता को डरा-धमका कर मतदान को प्रभावित करवा लिया जाता हो; जहाँ की प्रशासनिक मशीनरी पर भी सत्ता के समर्थन में कार्य करने का आरोप लगता रहता हो वहाँ पर राइट टू रिकॉल की बात करना ही बेमानी है, उसकी सफलता अथवा असफलता तो बाद की बात है। हाँ, राइट टू रिजेक्ट को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है और चुनाव प्रणाली में आये अनेक तरह के बदलावों के बीच इस बदलाव को भी स्वीकार किया जाना चाहिए।

आज राजनीतिज्ञों की असंवेदनशीलता, उनकी संकुचित मानसिकता, स्वार्थपरकता, धनलोलुपता, पद के प्रति मोह को देखकर मतदाताओं में उनके प्रति वितृष्णा का भाव पैदा होता जा रहा है। जागरूक मतदाताओं की दृष्टि में भले ही मतदान करना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के प्रति अपना दायित्व, अपना अधिकार समझा जाता हो किन्तु प्रत्याशियों के चयन के नाम पर उनमें असंतुष्टि का भाव रहता है। ऐसे में मतदाता के समक्ष उन तमाम सारे प्रत्याशियों को नकारने का विकल्प भी उपस्थित होना ही चाहिए। वर्तमान चुनावों में जिस तरह से अधिसंख्यक मतदाताओं के मन में प्रत्याशियों को नकारने सम्बन्धी निर्वाचन के फॉर्म 49 ओ के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है उससे निर्वाचन आयोग को राइट टू रिजेक्ट के प्रति भी सकारात्मक रूप से विचार करना ही पड़ेगा। यह भी सम्भव है कि मतदान के प्रति जागरूकता को देखते हुए आने वाले दिनों में जागरूक मतदाताओं द्वारा इस अधिकार के प्रति एक देशव्यापी आन्दोलन शुरू हो और अगले विधानसभा चुनावों में मतदाता को मतदान मशीन में प्रत्याशियों को नकारने का विकल्प भी बटन के रूप में दिखाई दे।

Comments