सरकार की और आम आदमी की आपस में स्थिति इस प्रकार की हो गई है कि दोनों में से कोई कुछ भी कहे, कुछ भी करे दूसरे पक्ष को विरोध करना ही करना है। अभी कपिल सिब्बल ने सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रतिबंध लगाने जैसी बात कही कि देश के उस वर्ग में भूचाल सा आ गया जो इंटरनेट पर बैठा-बैठा अपनी भड़ास निकालता है। इसी के साथ उस वर्ग में भी उठापटक जैसी स्थिति हो गई जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की ठेकेदारी करते घूमते हैं।
कपिल सिब्बल के बयान ने मीडिया को भी एकाएक तेजी प्रदान कर दी। एकदम से सभी चैनलों पर प्रसारण, साक्षात्कार आदि होने प्रारम्भ हो गये जिनमें से यह सिद्ध करने की कोशिश की जाने लगी कि कौन सही है, कपिल सिब्बल अथवा देश की जनता का वह भाग जो कम्प्यूटर के सामने बैठकर कुछ बटनों की गिटर-पिटर से स्वयं को सरकार से लड़ते रहने का दम्भ पाल लेता है। सरकारी पक्ष की चिन्ता अपने स्तर पर सही है अथवा गलत यह तो उनकी सोच है किन्तु हम स्वयं में जबकि जनता के उसी वर्ग के हिस्से में आते हैं जो कम्प्यूटर के सामने बैठकर क्रान्ति करने का दम भरता है तो सोचा कि क्यों न अपने पक्ष की सोच के बारे में ही कुछ विचार किया जाये।
बयान एक आया किन्तु उस पर फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग पर इस तरह से विरोध की भरमार मच गई कि लगा जैसे कोई बहुत जन-विरोधी नीति को लागू करने की मंशा जाहिर की गई हो। इस विरोध के पीछे का मनोविज्ञान इतना ही है कि जो लोग घरों से बाहर आकर क्रान्ति करने की, परिवर्तन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं; जो लोग सरकार की गलत नीतियों के विरोध में बाहर सड़कों पर विद्राह करने की हिमाकत नहीं कर पाते हैं वे कम्प्यूटर के सामने बैठकर कुछ विचारों, कुछ फोटो के माध्यम से विरोध करके अपने आपको तुर्रमखान समझने लगते हैं। यह सुनकर हास्यास्पद लगा कि कुछ स्वयंभू इंटरनेट विशेषज्ञों का, कुछ फेसबुक-ट्विटर पर गिटपिट करने वाले स्वयंभू विशेषज्ञों का मानना है कि लोग अपने विरोध को इन सोशल नेटवर्क साइट पर निकाल रहे हैं वरना आये दिन नेताओं पर झापड़-जूतों के पड़ने की घटनाओं से समाज को सामना करना पड़ता। यह हास्यास्पद इस कारण से है कि यदि हम इन सोशल नेटवर्क साइट के प्रारम्भ होने के ठीक पहले का काल देखें तो क्या उस समय समाज में सरकार के प्रति जनता में आक्रोश नहीं था? क्या उस समय की सरकारें जन-विरोधी कार्यों को नहीं करती थीं? क्या उस समय भी आम जनता मंहगाई-बेरोजगारी आदि से पीड़ित नहीं थी? तब भी ऐसा ही था और उस समय जनता के गुस्सा निकालने के लिए इस तरह का कोई आभासी साधन भी जनता के पास नहीं था....तब क्या नेताओं की पिटाई, उनके विरुद्ध आक्रोश की घटनाओं की तीव्रता इस प्रकार से नहीं थी।
इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि देश की कुल आबादी का कितना बड़ा हिस्सा है जो इंटरनेट के माध्यम से इन साइट पर अपना विरोध प्रकट करता है। यह भी याद रखने की बात है कि देश में हमेशा से जो भी परिवर्तन हुए हैं वे सड़कों पर उतर कर हुए हैं न कि कमरों में बैठकर। क्या अभी तक कोई ऐसी घटना सामने आई है जिससे ज्ञात होता हो कि कमरों में बैठकर अपना विचारात्मक विरोध दर्शाने वालों ने अपने विरोध का सकारात्मक रूप देश के सामने रखा है। आभासी दुनिया में सिर्फ और सिर्फ विचारात्मक क्रान्ति ही हो सकती है जिसपर टिप्पणियों को प्राप्त किया जा सकता है, अपने समर्थकों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है किन्तु समाजोपयोगी परिवर्तन की अपेक्षा कतई नहीं की जा सकती है।
जहां तक हमारा अपना मानना है, सरकारी पक्ष का विरोध सिर्फ और सिर्फ इस कारण से हो रहा है कि यहां उन लोगों को बिना किसी सम्पादन के अपना छपासरोग पूरा होने का मौका मिल रहा है जो अभी तक कागज काले कर-करके अपने घरों में ही भरे जा रहे थे। उन लोगों को विचारात्मक संतुष्टि मिल रही है जो अपनी विचारात्मक-भड़ास को पान की दुकान पर, चाय के ढाबों पर निकाल लिया करते थे। उन लोगों की अतृप्त मानसिकता को संतृप्ति मिल रही है जो कहीं भी किसी भी रूप में लोगों के सामने अपनी बात को कह नहीं पाते थे। इन तमाम सारी साइट पर देखने में आसानी से मिल रहा है कि यहां पूर्ण स्वतन्त्रता होने से, सम्पादकत्व की गैर-मौजूदगी होने से, किसी भी प्रकार का प्रतिबंध न होने से अधिसंख्यक लोगों द्वारा विचारात्मक अशालीन, अमर्यादित व्यवहार किया जा रहा है। ऐसे में लोगों को भय है कि यदि किसी भी रूप में आंशिक अथवा पूर्ण पतिबंध सरकार की ओर से लगाया गया तो उनकी इस अशालीनता का, अशोभनीनयता का प्रस्तुतिकरण कहां और किसके समक्ष होगा।
एक बात उन तमाम लोगों को भी याद रखनी होगी जो इन सोशल नेटवर्क साइट का उपयोग कर रहे हैं कि वे सभी लोग एक प्रकार की मुफ्तखोरी का लाभ उठा रहे हैं। एक पल को मान लिया जाये कि यदि इन तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट को उनके मालिकों द्वारा भारत में पूर्णतः बन्द कर दिया गया तो देश की कुल आबादी का एक बहुत छोटा सा हिस्सा जो इन साइट का रोगी हो चुका है, वो अपनी भड़ास, अपना विरोध कहां दर्ज करवायेगा?
यहां एक बात और स्पष्ट कर दी जाये कि हम किसी भी रूप में सरकार के इस बयान के पक्ष में नहीं हैं कि इन साइट पर विचारात्मक प्रतिबंध लगाया जाये किन्तु हम इसके घनघोर समर्थक हैं कि विचारों के नाम पर अश्लीलता का, अशोभनीयता का, अमर्यादा का चित्रण कदापि स्वीकार नहीं होना चाहिए। इसलिए इस बात का ध्यान रखना ही होगा कि इससे पहले सरकार साइटों पर प्रतिबध जैसी कार्यवाही करे, साइटों के मालिकों द्वारा रोक की कार्यवाही हो, हमें अपने विचारों पर, अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाकर स्वयं को अश्लीलता की ओर, अशालीनता की ओर जाने से रोकना होगा।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
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