सात अरबवीं बच्ची और बच्चियों का भविष्य
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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अभी हाल में हमारे देश सहित सम्पूर्ण विश्व ने विश्व आबादी के सात अरब होने का जश्न सा मनाया। इस जश्न में हम भी किसी न किसी रूप में शामिल हुए। विश्व जनसंख्या की सात अरब की संख्या की स्वीकार्यता को और बच्चियों को प्रमुखता देने की दृष्टि से इस संख्या का निर्धारण किसी बच्ची के लिए ही करना था। एक ओर यदि अफ्रीकी देश में इस बच्ची के जन्म को उल्लास की दृष्टि से देखा गया तो हमारे देश में भी इसी संख्या का निर्धारण एक बच्ची के लिए करके हमने भी सात अरब की संख्या में सम्मिलित होने की औपचारिकता का निर्वाह कर लिया।
वर्तमान वैश्विक आर्थिक संदर्भ में यह महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी विश्व जनसंख्या किस आँकड़े को छू चुकी है; हमारे पास इस जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध हैं भी या नहीं; बढ़ती जा रही जनसंख्या को रोक पाने अथवा कम कर पाने का कोई कारगर उपाय हमारे पास है भी या नहीं, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है जो महत्वपूर्ण है। हमने सात अरबवें बच्चे को एक बच्ची के रूप में परिभाषित कर समाज की दृष्टि बच्चियों के प्रति बदलने की चेष्टा की है। सम्पूर्ण विश्व में इस बात के संकेत देने के प्रयास किये गये कि विश्व जनमत बच्चियों के प्रति संवेदित और सकारात्मक सोच रखता है। यह प्रसन्नता की बात हो सकती है कि हाल के वर्षों में समाज में बच्चियों के प्रति अपना नजरिया बदलने का चलन प्रारम्भ सा हो गया है; एक प्रकार की औपचारिकता का निर्वाह करना शुरू सा हो गया है। बच्चियों के प्रति सकारात्मकता, संवेदनशीलता की औपचारिकता महज इसी कारण से परिलक्षित होती है क्योंकि हमने अभी भी बच्चियों को मारना बन्द नहीं किया है; गर्भ में उनकी हत्या करना नहीं छोड़ा है। विद्रूपता तो तब होती है कि मध्य प्रदेश सरकार की ओर से बेटी बचाओ अभियान के शुरू होने के अगले ही दिन एक बच्ची को जिन्दा दफनाये जाने की घटना सामने आती है।
कमोवेश ऐसा माहौल किसी एक राज्य में, किसी एक शहर में नहीं अपितु सम्पूर्ण देश में देखने को मिल रहा है। यहां हम इस समस्या को सम्पूर्ण वैश्विक संदर्भ में न देखकर अपने देश के संदर्भ में विचारपरक ढंग से देखें तो स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि हम इक्कीसवीं सदी का एक दशक पार करने के बाद भी बेटियों के प्रति दकियानूसी सोच अपनाये हुए हैं। इस सम्बन्ध में तमाम सारी घटनायें और 2011 की जनगणना के आँकड़े बेटियों के प्रति हमारी मानसिकता की कहानी अलग रूप में बयान कर रहे हैं। वर्तमान में 2011 की जनगणना के आंकड़ों में इस बात को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया कि 2001 की जनगणना की तुलना में 2011 में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। यह सत्य भी दिखता है क्योंकि 2001 की जनगणना में प्रति 1000 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 933 थी जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 940 तक जा पहुंची है। यह आंकड़ा उन सभी को प्रसन्न कर सकता है जो महिलाओं की घटती संख्या को लेकर चिन्तित रहते हैं किन्तु इसी संख्या के पीछे छिपे एक और कड़वे सत्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 2001 की जनगणना में प्रति 1000 की संख्या में छह वर्ष तक की बच्चियों की संख्या 927 थी जिसमें 2011 की जनगणना में और भी कमी आई है। 2011 की जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि छह वर्ष तक की बच्चियों की संख्या प्रति एक हजार पर मात्र 914 रह गई है। यही वो आंकड़ा है जो हमें महिलाओं की बढ़ी हुई संख्या पर प्रसन्न होने की अनुमति नहीं देता है। सोचने की बात है कि जब इस आयु वर्ग की बच्चियों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हो सकी है तो महिलाओं की संख्या में इस वृद्धि का कारण क्या रहा? बहरहाल वर्तमान सात अरबवीं बच्ची के जन्मने के संदर्भ में यह प्रश्न गौण है।
यदि 2011 की जनगणना के आँकड़े बच्चियों के संदर्भ में देखें तो बच्चियों के भविष्य के प्रति एक पर्याप्त शंका हमें दिखाई देती है। 2001 की जनगणना में जहां देश के 29 राज्यों में शून्य से छह वर्ष तक की आयुवर्ग की बच्चियों की संख्या 900 से अधिक थी वहीं 2011 की जनगणना में ऐसे राज्यों की संख्या गिरकर 25 रह गई। बच्चियों के प्रति राज्यों की संवेदनशीलता, गम्भीरता का पता इसी से चलता है कि यदि 900 की संख्या से अधिक के राज्यों के प्रथम दस राज्यों का दोनों जनगणना अवधि में तुलनात्मक अध्ययन करें तो आसानी से ज्ञात होगा कि 2001 की जनगणना में सर्वोच्च स्थान पर रहे राज्य दादर नगर हवेली में बच्चों की संख्या 979 थी और 2011 की जनगणना में सर्वोच्च राज्य के रूप में मिजोरम सामने आया, जिसमें बच्चियों की संख्या 971 रही। 2001 की जनगणना के 29 तथा 2011 की जनगणना के आधार पर 25 ऐसे राज्यों में प्रथम दस राज्यों की स्थिति को, जिनमें बच्चियों की संख्या प्रति एक हजार पुरुषों पर 900 से अधिक रही, निम्न सारणी के अनुसार समझा जा सकता है—
सारणी-1
प्रति 1000 पुरुषों पर 0-6 वर्ष आयु वर्ग में 900 से अधिक बच्चियों की संख्या वाले प्रथम दस राज्य
राज्य
| संख्या 2001 में |
| राज्य | संख्या 2011 में |
दादर एवं नगर हवेली | 979 |
| मिजोरम | 971 |
छत्तीसगढ़ | 975 |
| मेघालय | 970 |
मेघालय | 973 |
| अंडमान-निकोबार | 966 |
पाण्डिचेरी | 967 |
| पाण्डिचेरी | 965 |
त्रिपुरा | 966 |
| छत्तीसगढ़ | 964 |
झारखण्ड | 965 |
| अरुणाचल प्रदेश | 960 |
असम | 965 |
| केरल | 959 |
मिजोरम | 964 |
| असम | 957 |
नागालैण्ड | 964 |
| त्रिपुरा | 953 |
अरुणाचल प्रदेश | 964 |
| पश्चिम बंगाल | 950 |
Data from Official website of Registrar General & Census Commissioner, India
(Ministry of Home Affairs, Government of India) www.censusindia.gov.in
राज्यों में बच्चियों के जन्म को लेकर और कन्या भ्रूण हत्या अथवा कन्या हत्या को रोकने के प्रति सजगता की स्थिति यह रही कि मात्र आठ राज्य ही ऐसे रहे जिनमें बच्चियों की संख्या में 2001 के मुकाबले 2011 में वृद्धि देखने को मिली। हालांकि वृद्धि दर्ज कराने वाले राज्यों में पहला स्थान प्राप्त पंजाब में भी बच्चियों की संख्या सुखद अनुभव नहीं करवाती है क्योंकि यहां 2001 के मुकाबले 2011 में 48 बच्चियों की संख्या बढ़ोत्तरी के बाद भी प्रति हजार पुरुषों पर बालिकाओं की संख्या 900 से कम ही रही। कृपया सारणी का अवलोकन करें—
सारणी-2
प्रति 1000 पुरुषों पर 0-6 वर्ष आयु वर्ग की बच्चियों की संख्या में वृद्धि वाले राज्य
राज्य | 2001 | 2011 | वृद्धि |
पंजाब | 798 | 846 | 48 |
चंडीगढ़ | 845 | 867 | 22 |
हरियाणा | 819 | 830 | 11 |
हिमाचल प्रदेश | 896 | 906 | 10 |
अंडमान-निकोबार | 957 | 966 | 09 |
मिजोरम | 964 | 971 | 07 |
तमिलनाडु | 942 | 946 | 04 |
गुजरात | 883 | 886 | 03 |
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कुछ इसी तरह की दर्दनाक स्थिति बच्चियों की संख्या में कमी दर्शाने वाले राज्यों में देखने को मिली। 2001 के मुकाबले 2011 में प्रति हजार पुरुषों पर बच्चियों की संख्या में कमी दर्शाने वाले राज्यों में सबसे अधिक कमी 82 ही रही, जो जम्मू-कश्मीर में देखने को मिली। 2001 की जनगणना के मुकाबले 2011 की जनगणना में बच्चियों की संख्या में कमी होने वाले पहले दस राज्यों की सूची को सारणी के रूप में देखा जा सकता है—
सारणी-3
प्रति 1000 पुरुषों पर 0-6 वर्ष आयु वर्ग की बच्चियों की संख्या में कमी वाले राज्य
राज्य | 2001 | 2011 | कमी |
जम्मू एवं कश्मीर | 941 | 859 | 82 |
दादर एवं नगर हवेली | 979 | 924 | 55 |
लक्षदीप | 959 | 908 | 51 |
महाराष्ट्र | 913 | 883 | 30 |
राजस्थान | 909 | 883 | 26 |
मणिपुर | 957 | 934 | 23 |
झारखण्ड | 965 | 943 | 22 |
उत्तराखण्ड | 908 | 886 | 22 |
नागालैण्ड | 964 | 944 | 20 |
मध्य प्रदेश | 932 | 912 | 20 |
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(Ministry of Home Affairs, Government of India) www.censusindia.gov.in
यह आंकड़ा इस दृष्टि से और चिन्ता का कारण बनता है क्योंकि 2001 की जनगणना में यहां बच्चियों की संख्या 941 थी जो 2011 में घटकर 859 पर आ गई। प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले बालिकाओं की संख्या में वृद्धि वाले आठों राज्यों और कमी दर्शाने वाले प्रथम दस राज्यों की स्थिति को सारणी से समझा जा सकता है। इसमें विशेष बात यह रही कि जिन आठ राज्यों में बच्चियों की संख्या में प्रति हजार के अनुपात में वृद्धि हुई है उनमें से पांच में बच्चियों की संख्या 2001 की जनगणना में 900 से कम रही और वृद्धि के बाद भी 2011 की जनगणना में इन पांच में से चार राज्यों में बच्चियों की संख्या 900 के आँकड़े को छू भी नहीं पाई। इसी से समझा जा सकता है कि बालिकाओं की संख्या में वृद्धि अवश्य ही हुई हो पर इतनी नहीं कि जिस पर प्रसन्नता व्यक्त की जा सके।
वर्तमान में देश के विभिन्न भागों से, विविध क्षेत्रों से बालिकाओं की गिरती संख्या के प्रति चिन्ता व्यक्त की जा रही है। सरकारी तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों से इस बारे में लगातार कदम उठाये जाते दिखते हैं किन्तु इसके बाद भी आशातीत परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि बालिकाओं की गिरती संख्या से उत्पन्न होने वाले विभेदपूर्ण लिंगानुपात से समाज में जो भी विषम स्थिति बननी हो, जो भी हालात पैदा होने हों, अभी हम उनकी भयावहता को समझ न पा रहे हों। यह भी हो सकता है कि स्थिति की भयावहता को हम समझकर भी नहीं समझना चाहते हैं। सत्यता यह है कि वर्तमान में जो हालात समाज के हैं कम से कम वैसे हालात तो नहीं होंगे बल्कि उनसे कहीं न कहीं भयावह ही होंगे। आज हम अपने आसपास निगाह डालते हैं तो देखते हैं कि लगभग प्रति मिनट की दर से किसी न किसी महिला को शारीरिक शोषण का शिकार बनाया जा रहा है। अकेली महिला के साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार की घटनाओं के अतिरिक्त बाल यौन शोषण की भी घटनायें आम होती जा रही हैं। इन घटनाओं में आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति के साथ-साथ बाहरी व्यक्तियों का, घर-परिवार के व्यक्तियों का, यौन विक्षिप्त व्यक्ति का भी हाथ होता है। महिलाओं, बच्चियों की खरीद-फरोख्त, उनको जबरन देह व्यापार को विवश करना, वेश्यावृत्ति के धंधे में उतार देना आदि-आदि ऐसी स्थितियां हैं जो महिलाओं की गिरती स्थिति को दर्शाती हैं। इसके अलावा वर्तमान में यह भी देखने में आ रहा है कि विवाह हेतु भी महिलाओं-लड़कियों की खरीद-फरोख्त की जा रही है। इसके उदाहरण हमें आसानी से हरियाणा, चण्डीगढ़, पंजाब, पूर्वी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में देखने को मिलते हैं। इसी तरह से हिमाचल प्रदेश में और देश के अन्य भागों में बहुपत्नी प्रथा भी देखने को मिल रही है, जिसमें किसी प्रथा अथवा संस्कार के कारण नहीं अपितु महिलाओं की कमी और पुरुषों की अधिकता के कारण एक ही परिवार के सभी भाइयों के साथ एक ही महिला का विवाह सम्पन्न करवा दिया जाता है। ये सारी वे स्थितियां हैं जो महिलाओं की गिरती संख्या के परिप्रेक्ष्य में जन्म लेती हैं।
इन सबके बाद भी यदि एक पल को इस बात पर भी विचार कर लिया जाये कि उक्त स्थितियां महिलाओं की गिरती संख्या के कारण उत्पन्न नहीं हैं अथवा भविष्य में भी इस तरह की घटनाओं का जन्म बालिकाओं की गिरती संख्या के कारण नहीं होगा तो भी कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। पुत्र की लालसा में महिला का गर्भपात करवाते रहना किसी न किसी रूप में उसके शरीर पर अत्याचार करना ही होता है। इस बारे में चिकित्सा विज्ञान भी स्पष्ट रूप से बताता है कि लगातार होते गर्भपात से महिला के गर्भाशय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और इस बात की भी आशंका रहती है कि महिला भविष्य में गर्भधारण न कर सके। गर्भपात के बार-बार होने से महिला के स्वास्थ्य पर भी असर होता है और कई बार खून की कमी से गर्भवती होने पर अथवा प्रसव होने पर पर महिला की मृत्यु भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त जिन परिवारों में एक पुत्र की लालसा में कई-कई बच्चियों जन्म ले लेती हैं वहां उनकी सही ढंग से परवरिश नहीं हो पाती है। उनकी शिक्षा, उनके लालन-पालन, उनके स्वास्थ्य, उनके खान-पान पर भी उचित रूप से ध्यान नहीं दिया जाता है। इसके चलते वे कम उम्र में ही मृत्यु की शिकार हो जाती हैं अथवा कुपोषण का शिकार होकर कमजोर बनी रहती हैं, परिणामतः उसका वैवाहिक जीवन भी कष्टकारी और विसंगतियों भरा होने की आशंका बनी रहती है।
हम एक बच्ची को विश्व का सात अरबवाँ शिशु घोषित करके भले ही अपनी पीठ इस बात के लिए ठोंक लें कि हम बालिकाओं के प्रति प्रोत्साहन का कार्य कर रहे हैं पर सत्यता यह है कि सिवाय दिखावे के हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। होना यह चाहिए कि अब दिखावे से बाहर आकर हमें ठोस कदम उठाने होंगे। समाज में दूसरे के परिवार से नहीं वरन् हमें अपने ही परिवार से इस हेतु प्रयास करने होंगे। समाज को इस बारे में प्रोत्साहित करना होगा कि बेटियों के जन्म को बाधित न किया जाये, बेटियों को गर्भ में अथवा जन्म लेने के बाद मारा न जाये। बेटियों के प्रति भी सम्मान का, प्यार का, अपनेपन का भाव जगा कर हमें पुत्र लालसा में बेटियों की फौज को खड़े करने से भी समाज को रोकना होगा। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करके बच्चियों के साथ-साथ उनके माता-पिता के मन में भी महिलाओं के प्रति आदर-सम्मान का भाव जाग्रत करना होगा। घर में भी महिलाओं के प्रति भेदभाव की स्थिति को दूर करने के तरीकों का विकास करना होगा और बेटियों को भी वही मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता करवानी होगी जो एक परिवार अपने पुत्र को देने की बात सोचता है। हम सभी को अपने मन से, कर्म से, वचन से बेटियों के प्रति, बच्चियों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाना पड़ेगा। सिर्फ और सिर्फ दिखावे की दुनिया से, समारोहों, गोष्ठियों की भूल-भुलैया से बाहर आकर बच्चियों को बचाने का रास्ता अपनाना पड़ेगा और पुत्र लालसा में अंधे होकर बेटियों को मारते लोगों को समझाना होगा कि ‘यदि बेटी को मारोगे तो बहू कहाँ से लाओगे?’
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
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Unless the cultural setup of society takes place, the trend of declining sex ratio can never be checked. Who wants to pay dowry if he has a choice ? Who wants to give a birth to girl in such a society where crime against women are increasing day by day and where Honor killing is popular? Everybody talks of women empowerment but that is just on paper, I question the very basic of our country, the democracy in a family. Women are not considered as mature & intelligent enough even on the issue of their marriage. Medical ethics is eroding day by day and we see the failure of PCPNDT Act & result is very obvious in the latest census.
ReplyDeleteUnless the philosophy of patriarchy is questioned, I do not see any permanent solution to balance sex ratio, violence against women etc.