कृषि पदार्थों की विपणन व्यवस्था

कृषि पदार्थों की विपणन व्यवस्था
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत भी कृषिप्रधान देश है। यहाँ के जीवन और अर्थव्यवस्था में कृषि की अहम भूमिका है। देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह, पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में कृषि की सशक्त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त है। चावल, गेंहू, तिलहन, गन्ना तथा अन्य नकदी फसलों की पैदावार में वृद्धि हुई है। यही कारण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का सराहनीय योगदान होने के साथ-साथ विश्व में भी कृषि के कारण भारत की साख बनी हुई है। चाय तथा मूँगफली के उत्पादन में भारत का विश्व में पहला स्थान है तो चावल के उत्पादन में दूसरा तथा तम्बाकू के क्षेत्र में तीसरा स्थान है।

भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ-साथ विश्व बाजार में भी अपना स्थान रखने वाली भारतीय कृषि पिछड़ेपन की स्थिति से जूझ रही है जो यहाँ की आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य अनेक कारणों से भी है। जोतों का छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा में है।

इसके अतिरिक्त कृषि पदार्थों के विपणन की व्यवस्था भी विकास में सहयोगी भूमिका का निर्वाह करती है। देखा जाये तो कृषि का अलग-अलग कालखण्ड में अलग-अलग महत्व रहा है। कभी यह पूरी तरह जीवन-निर्वाह के लिए की जाती थी। धीरे-धीरे खाद्य समस्या के निस्तारण, जीवन-निर्वाह के समाधान के बाद कृषि को अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी प्रयोग में लाया जाने लगा। इस कार्य के लिए किसान को फसल के साथ-साथ नकदी की भी आवश्यकता महसूस हुई। परिणामतः किसान ने फसल का कुछ हिस्सा बेचना शुरू कर दिया। प्राचीन समय में फसल विपणन की उचित व्यवस्था न होने के कारण किसान को अपनी फसल को वहीं स्थानीय स्तर पर गाँव के बड़े किसानों, महाजनों को बेचने को मजबूर होना पड़ता था।

समय के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश का विकास हुआ। शहरों के विकास और वहाँ तीव्रतर गति से बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप खाद्य फसलों की आवश्यकता तेजी से महसूस हुई। किसान अब वाणिज्यिक फसलों को महत्व देने लगा था। बढ़ती खाद्य माँग के कारण गाँवों में तेजी से एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जो सिर्फ और सिर्फ लाभ के लिए खेती करता था। वह तेजी से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता था। यह वर्ग पुराने समय से चली आ रही विपणन व्यवस्था से असंतुष्ट था और इस व्यवस्था में सुधार चाहता था। देखने में आया कि कृषि के बढ़ते वाणिज्यीकरण, बाजारीकरण के कारण लगातार चली आ रही पुरानी विपणन व्यवस्था में सुधार की ओर सरकारी स्तर पर भी ध्यान देना शुरू किया गया। अच्छी विपणन व्यवस्था एक ओर औद्योगिक विकास के हित में है, साथ ही किसानों के लिए भी लाभप्रद है। सीधे शब्दों में कहें तो कृषि-उपज की बिक्री मूल रूप से कृषि-पदार्थों को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की क्रिया है। इसके लिए दो बातों का समझना आवश्यक होता है। एक तो कृषि पदार्थों के उपभोक्ता अथवा खरीददार और दूसरे कृषि उत्पादन एवं बिक्री के बीच की शंृखला। इस प्रकार विपणन में यह आवश्यक होता है कि कोई उपभोक्ता हो साथ ही बिक्री सम्बन्धी एक मानक व्यवस्था हो। इसमें कृषि-उपज को बिक्री हेतु एकत्र करना, उसे मण्डियों तक लाना, परिवहन की व्यवस्था करना, उनके गोदाम में रखने की व्यवस्था करना, इसके बाद ही बिक्री की कड़ी आती है।

कृषि-विपणन के अर्थ में सामान्य रूप से कुछ बातें प्रमुखता से सामने आतीं हैं।

(1) किसी भी उत्पादन-कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक है कि उत्पादित वस्तु की बिक्री की जाये। यही बात उद्योगों पर भी लागू होती है किन्तु कृषि क्षेत्र में इसका विशेष महत्व है। इसके पीछे एक कारण कृषि क्षेत्र का अत्यन्त विस्तृत एवं विभिन्नता लिए होना है। आमतौर पर देखने में आता है कि एक ही कृषि क्षेत्र में विभिन्न तरह की फसलें होतीं हैं। बिक्री के लिए उनको एकत्र कर उनका श्रेणीकरण करना आवश्यक होता है।

(2) कृषि-पदार्थों में कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत ही जल्दी नष्ट होने लगते हैं-फल, सब्जी आदि। ऐसे पदार्थों का अतिशीघ्र मण्डी में पहुँचना आवश्यक होता है। इसी तरह कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जो एक समय में ही उपलब्ध होते हैं किन्तु उनकी माँग वर्ष भर बनी रहती है, ऐसे खाद्य पदार्थों कर संग्रहण भी महत्वपूर्ण होता है।

इन सब बातों के बाद भी देखने में आया है कि कृषि-पदार्थों की विपणन व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं हो पा रही है। विपणन व्यवस्था में कमी के साथ-साथ भारतीय कृषि की दशायें भी इस पर अपना प्रभाव डालती हैं। किसान की गरीबी और पिछड़ेपन के कारण भी विपणन की आदर्श स्थिति निर्मित नहीं हो पाती है। वर्तमान में देश में अनेक प्रकार की विपणन व्यवस्थायें कार्य कर रहीं हैं। ये व्यवस्थायें समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वतः ही निर्मित हो जातीं हैं।

(1) आज भी बड़े पैमाने पर देखने में आता है कि गाँव के महाजन अथवा बड़े व्यापारी को फसल का बहुत बड़ा हिस्सा हमारे किसान बेच देते हैं। इसके पीछे कारण छोटे किसान के सामने परिवहन की समस्या, अपनी फसल का मूल्य शीघ्र ही पाने की विवशता, जीवन-निर्वाह के लिए तथा अन्य दूसरे कार्यों के लिए धन की नितांत आवश्यकता के चलते वह कम दामों में अपनी फसल को गाँवों में ही बेचने को विवश होता है।

(2) अनेक गाँवों के किसान अपनी फसल को गाँव में ही न बेचकर गाँव के आसपास लगने वाली हाट में बेच देते हैं। इसके पीछे किसान का एक कारण उसी बाजार से अपनी जरूरत का सामान भी क्रय कर लेना होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बड़े किसान जिनके पास फसल का आधिक्य होता है वे इस प्रकार से हाट में अपनी फसल नहीं बेचते हैं। यहाँ वे किसान विपणन के लिए आते हैं जिन्हें नकद धनराशि की आवश्यकता शीघ्र ही होती है।

(3) यातायात की कठिनाई के कारण, मंडियों में आढ़तियों और दलालों के कपटपूर्ण व्यवहार के चलते संकोचवश एवं आशंकित होकर भी छोटे किसान बड़ी मंडियों में जाने से घबराते हैं। इस कारण वे गाँव के आसपास के छोटे शहर में बनी मंडी में अपनी फसल को बेच देते हैं। इस प्रकार की मुडियों का संचालन थोक व्यापारियों के हाथों में होता है। इस व्यवस्था में किसान कई बार घाटे का शिकार हो जाता है।

(4) कृषि उत्पादों का सही मूल्य दिलवाने और किसानों का कपटपूर्ण व्यवहार से बचाने के लिए सहकारी विपणन पर जोर दिया जाता है। सहकारी विपणन समितियाँ थोड़े-थोड़े विपणन आधिक्य को एकत्र कर बेचतीं हैं। इसमें सामूहिक रूप से फसल को इकट्ठा कर मण्डी में बेचा जाता है। इससे सौदा करने की शक्ति बढ़ती है, किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्त होता है और वे अपने उत्पादन की बेहतर कीमत प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। इससे किसानों में उत्पादन करने के प्रति भी एक उत्साह का संचार होता है।

वर्तमान में हमारे देश में सहकारी विपणन व्यवस्था के साथ-साथ अन्य विपणन व्यवस्थायें भी काम कर रहीं हैं। इनके चलते कृषि विपणन व्यवस्था में कई प्रकार के दोष देखने में आते हैं। इन दोषों के कारण किसानों को एक तो उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, दूसरे वे उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं। यदि हम वर्तमान में चल रही व्यवस्था को देखें तो हमें विपणन व्यवस्था के दोष आसानी से दिखाई देते हैं-

(1) गाँव आधारित विपणन व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष संग्रहण का होता है। फसल के संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार के संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने से, कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है।

(2) विपणन व्यवस्था के दोष के रूप में परिवहन साधनों को भी प्रमुख रूप से रखा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्र में परिवहन व्यवस्थ के सुलभ न होने के कारण भी किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते। फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं।

(3) मध्यस्थों की बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष कहा जा सकता है। किसानों के मंडी में पहुँचने के पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं। इससे किसान को कभी-कभी अपनी उपज का लगभग 50 प्रतिशत तक ही दाम मिल पाता है। दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है। इस प्रकार की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं।

(4) उक्त तथ्यों के अतिरिक्त कई बार परिस्थितियाँ भी किसान के तथा विपणन के पक्ष में नहीं होतीं हैं। किसानों को ऋण चुकाने के लिए, आगामी फसल के लिए माल लेने के लिए, जीविकोपार्जन के लिए धन की आवश्यकता के कारण उचित विपणन व्यवस्था प्राप्त नहीं हो पाती है। इसके अलावा मूल्य की सही जानकारी न लगना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जायेगी।

सरकार यदि चाहती है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो, सभी किसान उत्साहजनक रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये। इसके लिए सरकार सहकारी मंडियों को तो बढ़ावा दे ही रही है। इसके अतिरिक्त उसे चाहिए कि वह श्रेणी विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे। मंडियों में पक्के माल-गोदामों का निर्माण करे। आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करे। इन सबके साथ देखा गया है कि नियंत्रित मंडियों की स्थापना ने बड़े किसानों को ही लाभ पहुँचाया है। सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें।

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