संघ प्रमुख और इमाम की मुलाकात का स्वागत हो

विगत कुछ वर्षों से देश के राजनैतिक हालात इस तरह के बना दिए गए हैं कि यदि भारतीय जनता पार्टी या फिर राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ के द्वारा मुस्लिम समाज के लिए कोई काम किया जाये अथवा मुस्लिम समाज के किसी व्यक्ति से मुलाकात कर ली जाये तो इसके सियासी अर्थ खोजे जाने शुरू कर दिए जाते हैं. इस तरह के काम या ऐसी मुलाकातें किसी अन्य राजनैतिक दल के द्वारा हों या फिर किसी अन्य संगठन के द्वारा, तो उस पर किसी तरह के सवाल खड़े नहीं किये जाते हैं.  कुछ ऐसे ही सियासी मकसद खोजे जाने लगे हैं जबसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा पिछले दो महीनों में दो मुलाकातें मुस्लिम समाज के प्रमुख व्यक्ति से कर ली गईं. 

मोहन भागवत वैसे भी इन दिनों मुस्लिम समुदाय के नेताओं से मिल रहे हैं किन्तु उनकी मुलाकात ने तब सियासी हलचल मचा दी जबकि उन्होंने अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख डॉ. उमैर अहमद इलियासी से दूसरी मुलाकात की. मोहन भागवत ने दिल्ली की एक मस्जिद में मरहूम मौलाना जमील इलियासी की मजार पर पहुँच कर फूल चढ़ाए. इसके बाद वहीं मस्जिद के बंद कमरे में उनकी और मस्जिद के इमाम डॉ. उमर अहमद इलियासी की लगभग एक घंटे तक चली गुफ्तगू ने सियासी पारे में हलचल पैदा कर दी. इसमें गर्मी उस समय बढ़ गई जबकि मोहन भागवत से मुलाकात के बाद इलियासी ने मंत्रमुग्ध होते हुए उनकी तारीफ करते-करते उन्हें राष्ट्रपिता कह दिया. 

देखा जाये तो यह कोई पहला अवसर नहीं है जबकि मोहन भागवत ने किसी मुस्लिम धर्मगुरु अथवा मुस्लिम नेता से मुलाकात की हो. इससे पहले वे पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई कुरैशी, पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति जमीरुद्दीन शाह और कारोबारी सईद शेरवानी से भी मुलाकात कर चुके हैं. इसके अलावा पिछले वर्ष मोहन भागवत ने मुंबई के एक होटल में मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक समूह के साथ मुलाकात की थी. इन मुलाकातों पर आकलन के पहले यदि संघ की गतिविधियों को मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो उसने मुस्लिम समुदाय में अपनी सकारात्मक पहुँच बनाने के लिए मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाया हुआ है. इसके अलावा संघ ने मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोगों से संवाद के लिए एक समिति भी बना रखी है. जिसमें इंद्रेश कुमार, कृष्ण गोपाल, मनमोहन वैद्य और रामलाल जैसे वरिष्ठ व्यक्तित्व शामिल हैं. 

समाज में, राजनैतिक हलकों में इन मुलाकातों को लेकर एक आमराय यही बनी हुई है कि संघ की तरफ से मुस्लिमों के दिलों में पैठ बनाने के लिए ऐसी मुलाकातें की जा रही हैं. यदि संघ की इन सहयोगी संस्थाओं का या फिर मुलाकातों का निहितार्थ मुस्लिम समाज में उसकी पैठ बनाने को लेकर ही माना जाये तो प्रथम दृष्टया इसमें बुराई क्या है? देश की आज़ादी के बाद के बरसों में राजनैतिक दलों ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए अनेकानेक कदम उठाये. मुस्लिम समाज को महज वोट-बैंक मानकर ही तमाम राजनैतिक दल अपनी-अपनी राजनैतिक गोटियाँ सजाते रहे. जहाँ तक भाजपा या फिर संघ की स्थिति को मुस्लिम समाज के सन्दर्भ में समझा जाये तो इनको भी गैर-भाजपाई, गैर-संघी मानसिकता के दलों, संगठनों ने मुसलमानों की निगाह में दुश्मन, आक्रामक, हत्यारा जैसा बना दिया है. अयोध्या रामजन्मभूमि मामले में विवादित ढाँचा गिराए जाने के बाद से संघ विरोधी दलों को ऐसा करने का जैसे एक सूत्र हाथ लग गया था. विभिन्न चुनावों के समय यही सूत्र उन दलों के लिए संजीवनी का कार्य करता आया है. संघ विरोधी दलों द्वारा विवादित ढाँचे की एकमात्र घटना को आधार बनाकर अनेकानेक चुनावों में, नीतियों में खुलेआम संघ को, भाजपा को मुस्लिम समाज का दुश्मन और खुद को उनका हितैषी बताया गया. 

यहाँ स्मरण करने योग्य तथ्य यह है कि इसी तरह का हितैषी बनने की लालसा में संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति द्वारा गोलीकांड करवाने में भी हिचक महसूस नहीं हुई थी. कालांतर में उसके द्वारा इसकी स्वीकारोक्ति में भी कोई संकोच नहीं किया गया. इस तरह की घटनाओं की खुलेआम स्वीकारोक्ति, मंचों से संघ को मुस्लिम विरोधी बताये जाने के बयान आदि से निश्चित ही सामाजिक वातावरण नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. ऐसे में समाज विरोधी तमाम ताकतों को यह डर है कि यदि मुस्लिम समाज में संघ अपनी सकारात्मक पहुँच बनाने में सफल हो गया तो न केवल उन तमाम दलों, संगठनों की असलियत सामने आ जाएगी बल्कि उनकी राजनैतिक जमीन भी खिसक जाएगी.   

मोहन भागवत की मुलाकात का मकसद यदि संघ की छवि को मुस्लिम समाज की निगाह में बदलना है, जिसमें विपक्षी दल और कई बुद्धिजीवी वर्ग उसे मुस्लिम विरोधी कहते हैं, तो यह समाज की बेहतरी के लिए एक सकारात्मक कदम कहा जाना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि संघ को इसके लिए भी बदनाम किया जाता है कि वह इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है. समझने वाली बात ये है कि भारत किसी एक राज्य का, एक संस्कृति का, एक भाषा का नाम नहीं है वरन यह अनेक राज्यों, अनेकानेक संस्कृतियों, भाषाओं का समुच्चय है. इसे किसी एक धर्म, मजहब के रूप में बदलना सहज नहीं. इन स्थितियों में, छवियों में परिवर्तन तभी लाया जा सकता है जबकि खुद मुस्लिम समाज संघ की बात सुनने को, उसके विचार जानने को आगे आये. इसके प्रति मुस्लिम समाज को अपनी सोच में, अपनी कट्टरता में बदलाव करने की आवश्यकता है. इसके लिए भी कोई बाहर से आकर काम नहीं कर सकता बल्कि खुद मुस्लिम समाज के भीतर से किसी व्यक्ति को सामने आना होगा, जिस पर मुस्लिम समाज भी विश्वास करता हो. 

मुसलमानों का संघ-विरोधी रवैया होना सिर्फ संघ के लिए ही नुकसानदायक नहीं है बल्कि वह पूरे समाज के लिए घातक है. वे केवल संघ को ही अपना विरोधी या दुश्मन न मानकर समस्त हिन्दुओं के प्रति ऐसी धारणा बनाये हैं. आये दिन छोटी से छोटी बात पर होती हिन्दू-मुस्लिम झड़पें, किसी-किसी राज्य में जानलेवा हिंसा के पीछे यही मानसिकता काम करती है. इनके उदाहरण समय-समय पर सामने आते ही रहते हैं. ऐसे में यदि मोहन भागवत की पहल पर मुस्लिम समाज से किसी ने एक सकारात्मक कदम बढ़ाया है तो उसमें किसी तरह की राजनैतिक मंशा न देखते हुए उस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. गैर-संघ मानसिकता वाले दलों और संगठनों ने इस तरह की मुलाकातों को सियासी रंग देते हुए इसे महज चुनावों के सन्दर्भ में सीमित कर दिया है. ऐसे लोगों का कहना है कि यदि संघ के, मोहन भागवत के प्रयासों से हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच बनी दूरी कम होती है तो इसका सबसे बड़ा फायदा भाजपा को आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में मिल सकता है. स्पष्ट है कि गैर-संघ, गैर-भाजपा दल, संगठन नहीं चाहेंगे कि संघ के, मोहन भागवत के ऐसे कोई भी प्रयास फलीभूत हों, जिनसे हिन्दू और मुस्लिम समाज की दूरी मिटे. ऐसा तब और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है जबकि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं स्पष्ट रूप से कहा है कि पार्टी को गैर-हिन्दू धर्म के पिछड़े तबके में पैठ बनानी चाहिए. इसका सीधा सा अर्थ है कि भाजपा अब मुस्लिमों को लुभाना चाहती है. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अवधारणा सबका साथ, सबका साथ वाली रही है. इसी तरह उनके द्वारा इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से दिए गए भाषण में पाँच प्रण की बात कही गई. इन पाँच प्रणों में उनका सबसे पहला सपना विकसित भारत का है, जिसके लिए उन्होंने एकता और एकजुटता की बात कही है. यह तभी संभव है जब मुस्लिम आबादी का संशय संघ और भाजपा को लेकर दूर हो. अगर ऐसा होता है तो निश्चित ही केन्द्र सरकार को अपनी कूटनीति, आर्थिक नीति, राजनीति को चलाना सहज होगा. ऐसे में न केवल समाज की बेहतरी के लिए बल्कि स्वयं मुस्लिम समुदाय के प्रति बनते जा रहे नकारात्मक माहौल को दूर करने के लिए भी संघ प्रमुख मोहन भागवत और इमाम डॉ. उमैर अहमद इलियासी की मुलाकात का स्वागत होना चाहिए. मुस्लिम समाज को ऐसी और भी मुलाकातों के प्रति सकारात्मक रुख अपनाये जाने की आवश्यकता है.



(उक्त आलेख राष्ट्रीय पत्रिका 'अमृत भूमि' के अक्टूबर 2022 अंक में प्रकाशित हुआ है.)

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