खेल न खेलें जल के साथ

जल-संकट से जूझती धरती को और धरती-वासियों को पर्याप्त पेयजल उपलब्धता, जल-उपलब्धता के लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। इन्हीं प्रयासों की कड़ी में विश्व जल दिवस का आयोजन भी है, जो प्रतिवर्ष 22 मार्च को मनाया जाने लगा है। जल-संकट को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर विश्व जल दिवस मनाने की शुरुआत हुई। इसकी घोषणा वर्ष 1992 में रियो-डि-जेनेरियो में आयोजित पर्यावरण तथा विकास का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में की गई थी। उसी के बाद वर्ष 1993 में 22 मार्च के ही दिन सम्पूर्ण विश्व में जल संरक्षण और रख-रखाव पर जागरुकता लाने का कार्य पहली बार आरम्भ किया गया।

 

पानी हमेशा से न केवल इंसानों के लिए वरन सम्पूर्ण प्रकृति के लिए एक महत्वपूर्ण और जीवन-दायक तत्त्व रहा है। यदि पानी को वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसकी संरचना पूर्णतः रंगहीन, गंधहीन व स्वादहीन है। रासायनिक दृष्टि से इसका सूत्र H2O है अर्थात ऑक्सीजन का एक परमाणु और हाइड्रोजन के दो परमाणु जुड़ने से पानी का एक अणु बनता है। विशुद्ध रासायनिक स्थिति के बाद भी इसे प्रयोगशाला में मानव उपयोग योग्य नहीं बनाया जा सकता है। कहीं न कहीं यह एक प्राकृतिक अवस्था है, जिसके कारण इसकी आवश्यकता मनुष्य के जीवन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण तरीके से बनी हुई है।

 

प्रकृति का अंग होने के कारण जल मानव शरीर का भी प्रमुख हिस्सा बना हुआ है। हमारे शरीर का साठ प्रतिशत से अधिक भाग पानी से बना हुआ है। इसी तरह एक इंसान के रक्त में 83 प्रतिशत मात्रा जल की होती है। जल की मात्रा शरीर के तापमान को सामान्य बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आश्चर्य का विषय यह है कि मानव के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण पदार्थों में से एक जल को खुद मानव ही समाप्त करने में लगा हुआ है। हम सभी इससे भी अनभिज्ञ नहीं हैं कि कि जल सभी के जीवन हेतु अनिवार्य भी है। ऐसा माना जाता है कि मनुष्य बिना भोजन के लगभग दो माह तक जीवित रह सकता है किन्तु बिना पानी के एक सप्ताह भी जीवित रहना मुश्किल है। मानवीय क्रियाकलापों के कारण धरती लगातार जल-विहीन, पेयजल-विहीन होती जा रही है।

 


वर्तमान में स्थिति यह है कि पूरी धरती के 70 प्रतिशत भाग में जल होने के बाद भी इसका कुल एक प्रतिशत ही मानवीय आवश्यकताओं के लिये उपयोगी है। आज सभी को जल की उपलब्धता करवाना मुख्य मुद्दा है। आने वाले समय में बिना जल-संरक्षण के ऐसा कर पाना कठिन कार्य होगा। इस दृष्टि से जल संरक्षण एक बड़ा मुद्दा है। जल-संरक्षण के अलावा शुद्ध पेयजल की आपूर्ति भी एक मुद्दा बना हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक अनुमान के अनुसार धरती के हर नौवें इंसान को ताजा तथा स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। स्वच्छ पेयजल की अनुपलब्धता के चलते संक्रमण और अन्य बीमारियों से प्रतिवर्ष 35 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है। विकासशील देशों में जल से उत्पन्न रोगों को कम करना स्वास्थ्य का एक प्रमुख लक्ष्य है।

 

जनसंख्या की दृष्टि से हमारा देश विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। समूचे विश्व की भांति हमारा देश भी जल संकट की विकराल समस्या से जूझ रहा है। यहाँ के शहरी क्षेत्रों में, ग्रामीण क्षेत्रों में भी जल संकट की समस्या पैदा हुई है। वर्तमान में 20 करोड़ भारतीयों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। नगरों में भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन होने के कारण शहरी क्षेत्र जल-संकट से परेशान हैं। पेयजल की कमी होने से एक तरफ पेयजल संकट बढ़ा है वहीं दूसरी तरफ पानी की लवणीयता भी बढ़ी है।

 

भारत में औद्योगीकरण ने, जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि ने जल-संकट उत्पन्न किया है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में देश की जनसंख्या वर्ष 2050 तक 180 करोड़ तक पहुँचने की सम्भावना है। ऐसे में जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना अत्यंत कठिन कार्य हो जायेगा। आँकड़ों के अनुसार स्वतंत्रता के बाद प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता में 60 प्रतिशत की कमी आयी है। सरकार के नीति आयोग ने जल संकट के प्रति आगाह करने वाली कंपोज़िट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स (CWMI), अ नेशनल टूल फॉर वाटर मेज़रमेंट, मैनेजमेंट ऐंड इम्प्रूवमेंट नामक एक रिपोर्ट  जारी की थी, इसमें नीति आयोग ने माना था कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयंकर जल संकट से जूझ रहा है। देश के क़रीब 60 करोड़ लोगों (ये जनसंख्या लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई द्वीपों की कुल आबादी के बराबर है) यानी 45 प्रतिशत जनसंख्या को पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। इस रिपोर्ट में एक तरह की चेतावनी भी दी गई थी कि वर्ष 2020 तक देश के 21 अहम शहरों में भूगर्भ जल समाप्त हो जाएगा। वर्ष 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा। वर्ष  2050 तक जल संकट की वजह से देश की जीडीपी को 6 प्रतिशत का नुक़सान होगा। इसी रिपोर्ट के आने के एक साल बाद सरकार ने 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों तक पाइप से पीने का साफ़ पानी पहुंचाने की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की।

 

नीति आयोग की इस रिपोर्ट को महज सरकारी आँकड़ा कहकर झुठलाया नहीं जा सकता है और न ही अनदेखा किया जा सकता है, जैसा कि अपने देश में बहुतायत रूप में होता है। सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ तमाम सारी निजी संस्थाएँ भी हैं जो जल संकट, जल संरक्षण की दिशा में कार्यरत हैं। जनसंख्या विस्फोट के चलते विभिन्न कार्यों में जल की माँग बढ़ी है अनुमान है कि सन 2025 तक भारत में पानी की माँग में वर्तमान की तुलना में 50 प्रतिशत वृद्धि हो जाएगी 

 

पर्यावरण से सम्बंधित, जल से सम्बंधित विभिन्न अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि देश में उपलब्ध जल का लगभग सत्तर प्रतिशत जल अशुद्ध है। इसमें भी प्रदूषित जल का प्रतिशत तीस से अधिक है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि इस अशुद्ध और प्रदूषित जल को पीने के बाद बहुत बड़ी जनसंख्या स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से घिर जाएगी। वर्तमान में हैजा, टाइफाइड, पीलिया, अतिसार, पेचिश आदि सहित लीवर आदि की समस्याओं का मूल कारण अशुद्ध जल ही है। ये कितनी बड़ी विडम्बना है कि पृथ्वी का अत्यधिक भाग जल से घिरा होने के बाद भी जल संकट लगातार बढ़ता जा रहा है. नदी, कुँए, तालाब, झील आदि जो जल के प्राकृतिक स्त्रोत हुआ करते हैं वे बहुतायत में दूषित हैं

  

देश में जहाँ सदानीरा नदियाँ बहा करती थीं, कुँए, तालाब, झीलें जल के परंपरागत स्त्रोत हुआ करते थे, वहाँ जल-संकट उत्पन्न होना यहाँ के नागरिकों द्वारा उठाये जाने वाले असंवेदित कदम ही हैं। पर्यावरण का, प्रकृति का अंधाधुंध दोहन का दुष्परिणाम है कि आज देश में जल-संकट मुँह फैलाए खड़ा है। देश में चले नगरीकरण ने परंपरागत जल-स्त्रोतों- कुँओं, तालाबों और झीलों को निगल लिया है। विश्व के कुल मीठे जल की मात्रा का 3.5 प्रतिशत ही भारत में उपलब्ध है, इस उपलब्ध जल का लगभग नब्बे प्रतिशत भाग कृषिगत कार्यों में उपयोग होता है। एक अनुमान के अनुसार देश में वर्तमान में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 2000 घनमीटर है। यदि हालात वर्तमान समय जैसे ही रहे, हम न सुधरे तो आगामी 20-25 वर्षों में जल की उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जायेगी। जल के वैज्ञानिक आधार पर माना जाता है कि यदि जल की उपलब्धता 1680 घनमीटर से कम हो जाती है तो इसका अर्थ है पेयजल से लेकर अन्य दैनिक उपयोग के लिए पानी की कमी होना। जल संकट का असर सिर्फ पेयजल अथवा घरेलू कार्यों पर ही नहीं होगा। इसके कम होने से सिंचाई के लिए भी जल की उपलब्धता न हो सकेगी, जिसके चलते खाद्यान्न संकट पैदा हो सकता है।

 

पानी की दिन पर दिन विकराल होती जा रही समस्या के समाधान के लिए गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जल की उपलब्धता लगातार कम हो रही और उसके उलट इसकी माँग लगातार बढ़ती जा रही है। देखा जाये तो जल का चौतरफा उपयोग किया जाता है। कृषि में, घरेलू कार्यों में, उद्योगों में तो मुख्य रूप से जल का उपयोग होता ही है, इसके अलावा रासायनिक क्रियाओं में, पर्यावरणीय उपयोग में भी जल का बहुतायत उपयोग किया जाता है। आज भारत की लगभग 30% आबादी शहरों में निवास करती है और आने वाले वर्षों में यह आँकड़ा और बढ़ने की संभावना है। अतः सरकारों और समुदायों को उचित जल प्रबंधन की ओर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है। नदियों को जोड़ा जाना भी इस ओर एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इससे उन इलाकों में जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है, जहाँ वर्ष के कुछ महीनों में भीषण जल संकट उत्पन्न हो जाता है। जल का उचित प्रबंधन न केवल समुदायों बल्कि राज्यों के बीच संभावित तनाव को कम करने में भी सहायक होगा। कृषि, औद्योगिक उत्पादन, पेयजल, उर्जा-विकास, सिंचाई तथा जीवन हेतु जल की निरंतरता बनाए रखने के लिये सतत् प्रयास ज़रूरी हैं।

 

ऐसे में सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर आवश्यक है कि सबके द्वारा जल प्रबंधन हेतु कारगर कदम अपनाये जाएँ। प्रयास यह हो कि किसी भी तरह की बड़ी जल-परियोजनाओं की जगह छोटे जलाशयों का निर्माण करना। बड़ी परियोजनाओं की तरफ जाना तभी उचित है जबकि इनकी अनिवार्यता हो। अन्यथा की स्थिति में छोटे-छोटे जलाशयों के द्वारा बड़े भाग में जनसंख्या को जल की उपलब्धता करवाई जा सकती है।

 

यह भी देखने में आता है कि समाज में बहुतायत नागरिकों के बीच मृदा प्रबंधन तथा वनीकरण सम्बन्धी जागरूकता कम देखने को मिलती है। इसके लिए आवश्यक है कि समय-समय पर जनता के बीच इनको लेकर सक्रिय भागीदारी हो, जिसमें जनता की सहभागिता अधिक हो। यदि मृदा प्रबंधन और वनीकरण तेजी से, सकारात्मक रूप से बढ़ेगा उनके प्रयासों में तेज़ी आएगी तो इससे धरती की सतह पर बहते पानी को रोका जा सकेगा। यह स्थिति भूजल में वृद्धि करने की दिशा में एक सशक्त कदम होगा।

 

देश की बहुत बड़ी जनसंख्या शहरों में निवास कर रही है। इसके अलावा लगातार शहर की ओर पलायन भी हो रहा है। इसके चलते न केवल घरेलू उपयोग में वरन अन्य औद्योगिक कार्यों में भी जल की आवश्यकता पड़ती है। जल माँग तेजी से बढ़ी है। इस माँग के सापेक्ष आपूर्ति नहीं हो रही है। ऐसे में शहर के उपयोग पश्चात् व्यर्थ जल को किसी न किसी प्रक्रिया से रोककर उनका पुनर्चक्रीकरण हो। इससे एक तो उपयोग पश्चात् जल व्यर्थ नहीं जायेगा साथ ही उसके पुनः उपयोग में लाये जाने के कारण माँग और आपूर्ति के बीच का अंतर भी कम करने में सहायता मिलेगी।

 

इसके साथ-साथ सम्बंधित विभागों को, नागरिकों को इस तरफ भी ध्यान देना होगा कि जल की आपूर्ति होने के दौरान अथवा घरों में जल के उपयोग के दौरान किसी तरह से पानी की बर्बादी न हो। आज भी बहुत बड़ी मात्र में पानी की बर्बादी लीकेज के चलते होती है। इससे होने वाले जल के नुकसान को कम करने के प्रयास करना चाहिए।

 

देश की बहुतायत जनसंख्या कृषि कार्यों से सम्बद्ध है। खेती यहाँ का मुख्य कार्य आज भी माना जाता है। ऐसे में कृषि के दौरान सिंचाई अथवा अन्य ऐसे कार्यों में, जिनमें जल की आवश्यकता होती है, ऐसी तकनीकों को अपनाया जाना चाहिए जिनके द्वारा कम से कम मात्रा में जल का उपयोग हो और अधिक से अधिक लाभ मिल सके। इसके लिए ड्रिप तथा स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी जल संरक्षण तकनीकों को अपनाया जाना चाहिए। इसी तरह रेन वाटर हारवेस्टिंग को प्रोत्साहन देकर भी बहुत हद तक जल-संकट को दूर किया जा सकता है। इसी तरह तालाबों, कुओं आदि में एकत्रित जल से सिंचाई को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे भूमिगत जल का उपयोग कम हो। इसके लिए बड़े-बड़े खेतों में जलाशय योजना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

 

शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी अपने मकानों की छतों पर वर्षा जल को तकनीक के माध्यम से एकत्र भी कर सकते हैं। इसके लिए वे छतों से गिरने वाले बरसात के पानी को खुले में रेन वाटर कैच पिट बनाकर उसे धरती में समाहित कर सकते हैं। इससे एक तो वर्षा जल की बहुत बड़ी मात्रा बर्बाद होने से बचेगी साथ ही जल संचयन के द्वारा भूगर्भ जल स्तर भी बढ़ाया जा सकता है। शहरों में प्रत्येक आवास के लिए रिचार्ज कूपों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिससे वर्षा का पानी नालों में न बहकर जमीन में संचयित हो जाये। इसके अलावा प्रत्येक मकान में आवश्यक रुप से वाटर टैंक बनाये जाने चाहिए, जिनमें वर्षा जल को संरक्षित किया जा सके। जल-संकट के दौरान या फिर घरेलू उपयोग की अन्य अवस्था में इस पानी का उपयोग किया जा सकता है।

 

वास्तव में आज आवश्यकता इस बात की है कि हम जल के किसी भी रूप का पूरी तरह से संरक्षण करें। यह जल भले ही भूगर्भ के रूप में हो, वर्षा जल हो, घरेलू, औद्योगिक रूप से उपयोग का जल हो। इन सभी का पूर्ण रूप से संचय करना होगा। आवश्यकता इसके प्रति लोगों की मानसिकता विकसित करने की, लोगों को प्रोत्साहित करने की।  

 

अब हालात ऐसे हो गए हैं कि महज कमियाँ निकाल कर, अव्यवस्थाओं का रोना रोकर इनका समाधान नहीं किया जा सकता है। अब जल को बचाए जाने की जरूरत है। सरकार के साथ-साथ यहाँ के जनसामान्य को जागरूक होने की आवश्यकता है। कृषि फसलों में ऐसी फसलों का चुनाव करे जिनमें कम से कम पानी की आवश्यकता हो। वर्षाजल के संग्रहण की व्यवस्था भी करनी होगी। पानी की बर्बादी को रोकना होगा। अपने-अपने क्षेत्रों के तालाबों, जलाशयों, कुँओं आदि को गन्दगी से, कूड़ा-करकट से बचाना होगा। जहाँ तक संभव हो, नए-नए तालाबों, कुँओं आदि का निर्माण भी जनसामान्य को करना चाहिए। भविष्य की भयावहता को वर्तमान की भयावहता से देखा-समझा जा सकता है। एक-एक दिन की निष्क्रियता अगली कई-कई पीढ़ियों के दुखद पलों का कारक बनेगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि पानी के बारे में जागरूकता लाने और उसकी अहमियत की जानकारी लोगों तक पहुंचाने का कार्य प्रमुखता से होना चाहिए। जल उपयोग में भी मितव्ययता बरतनी होगी और पानी की बर्बादी को रोकना होगा। इसके अतिरिक्त वर्षा जल के संरक्षण के उपाय खोजने होंगे तथा घरेलू उपयोग में भी जल-संरक्षण के प्रति सचेत होना पड़ेगा। यदि हम आज जागरूक और सजग न हुए तो तमाम सारे आयोजनों की तरह जल दिवस के आयोजन की औपचारिकता का निर्वहन करते रहेंगे और जल को तरसते रहेंगे।


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डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
उरई 

उक्त आलेख रामबाबू तिवारी जी द्वारा सम्पादित पुस्तक नीर गाथा (जल संकट : समस्या, समाधान एवं संभावनाएं), ISBN 978-93-90265-58-9, प्रथम संस्करण 2021 में पृष्ठ 101 से लेकर पृष्ठ 107 में प्रकाशित हुआ है. 




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